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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं उकस्सदव्वं पत्तं ति । संपहि गुणिदकम्मंसियमस्सिदूण वि जाणिदण दोण्हं कम्माणमेगफद्दयत्तं परूवेदव्यं । तम्हा ण णिप्फलमिदं सुत्तमिदि सिद्धं । * अट्टह कसायाणं जहण्णय पदेससंतकम्म कस्स ? ६२४७. सुगम। ® अभवसिद्धियपाओग्गजहएणयं काऊण तसेसु ागदो संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च पहुसो लद्ध ण चत्तारि वारे कसाए उवसामिण एइंदिए गदो। तत्थ पलिदोवमस्स असंखे जदिभागमत्तमच्छिदूण कम्म हदसमुप्पत्तियं कादण कालं गदो तसेसु आगदो कसाए खवेदि अपच्छिम द्विदिखंडए अवगदे अधट्ठिदिगलणाए उदयावलियाए गलतीए एकिस्से हिदीए सेसाए तम्मि जहणणयं पदं । ____६२४८. भवसिद्धियपाओग्गजहण्णपदेसपडिसेहढं अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णयं कादणे त्ति णिहिटुं । संजमासंजम-संजम-सम्मत्तगुणसेढिणिजराहि विणा खविदकिरियाए सव्वुक्कस्सेण एई दिएसु कम्मणिजराए कदाए जमवसेसं जहण्णदव्वं तमभवसिद्धियपाओग्गजहण्णदव्व ति घेत्तव्यं, तिरयणजणिदकम्मणिजराभावादो। तसेसु चेव क्रमसे चार पुरुषोंकी अपेक्षा पाँच वृद्धियों द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । अव गुणितकर्मा शकी अपेक्षा भी जानकर दोनों कर्मों के एक स्पधेकपनेका कथन करना चाहिये । इसलिये यह सूत्र निष्फल नहीं है यह बात सिद्ध हुई। * आठ कषायोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? ६२४७. यह सूत्र सुगम है । अभव्योंके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म करके त्रसोंमें आया। फिर संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको बहुत बार प्राप्त करके और चार बार कषायोंका उपशम कर एकेन्द्रियोंमें गया। वहाँ पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रह कर और कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके मरकर त्रसोंमें आया । वहां कषायोंका क्षपण करते समय अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन होनेके बाद अधःस्थितिगलनाके द्वारा उदयावलिके गलते हुए एक स्थितिके शेष रहने पर जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। ६२४८. भव्योंके योग्य जघन्य प्रदेशोंका निषेध करनेके लिये 'अभव्योंके योग्य जघन्य' इस पदका निर्देश किया। संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वके निमित्तसे जो गुणश्रेणि निर्जरा होती है उसके बिना क्षपित क्रियाके द्वारा सबसे उत्कृष्टरूपसे एकेन्द्रियोंके भीतर रहते हुए कर्मकी निर्जरा की जाने पर जो जघन्य द्रव्य शेष रहता है वह अभव्योंके योग्य जघन्य द्रव्य है यह इसका भाव है, क्योंकि यह कर्मनिर्जरा रत्नत्रयके निमित्तसे नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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