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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पसविहत्ती ५ $ १५२, पयडिगोवुच्छं तत्तो असंखेजगुणं विगिदिगोबुच्छ तत्तो असंखेज्जगुणं अपुव्यगुणसे ढोगोबुछं तत्तो असंखेजगुणं' अणियट्टिगुणसेढी गोबुच्छ च घेतूण जहण्णदव्वं जादमिदि घेत्तव्वं । १५६ * तदो पदेसुत्तरं दुपदेसुत्तरमेवमताणि द्वाणाणि तम्मि द्विदिविसेसे । $ १५३. सामित्त परूवणाए कादुमाढत्ताए तत्थेव किमहं द्वाणपरुवणा कीरदे ? ण, एत्तो उवरि पुत्रं व द्वाणपरूवणाए कीरमाणार विस्सरिदजहण्णदव्वसरूवस्त अणवगयतस्सरूवस्स वा अंतेवासिस्स द्वाणविसयावबोहो सुहेण उप्पाइ सक्किजदिति होनेवाले द्रव्यसे कुछ कम दूना हो जाता है । इसी प्रकार आगे जाकर जब शेप रही स्थिति गुणसंक्रमभागहारकी जघन्य परीतासंख्यात कम अर्धच्छेदशलाकाप्रमाण शेष रही स्थितिकी नाना गुणहाणिशलाकाएं होती हैं तब विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कुछ कम असंख्यातगुणा प्राप्त होता है । इस प्रकार यद्यपि यहां पर परप्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य असंख्यातगुणा हो गया है तो भी अब भी विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छा के असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, क्योंकि यहां पर अब भी प्रकृतिगोपुच्छाके भागहारसे विकृतिगोपुच्छाका भागहार असंख्यातगुणा पाया जाता है । इसके आगे जब शेष स्थितिकी नाना गुणहाणिशलाकाएं जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण प्राप्त होती हैं तब प्रकृतिगोपुच्छाका विकृतिगोपुच्छासे असंख्यातगुणापना समाप्त होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रकृतिगोपुच्छा घटती जाती है और विकृतिगोपुच्छा वृद्धिंगत होती जाती है । यह क्रम चालू रहते हुए जब जाकर स्थितिकाण्डकघात होकर इतनी स्थिति शेष रहती है जिसमें एक गुणहानि प्राप्त होती है तब जाकर विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छाके समान होती है, क्योंकि यहां प्रथमगुणहानिके सिवा शेष गुणहानियोंका द्रव्य स्थितिकाण्डक घातके द्वारा प्रथम गुणहानिमें पतित हो जाता है, अतः यहां विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छा के समान पाई जाती है। इसके आगे उत्तरोत्तर स्थितिकाण्डकघात के कारण विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण बढ़ता जाता है और प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण घटता जाता है । इस प्रकार अन्त में जाकर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी प्राप्त होती है, इसलिये स्वामित्वकालमें प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छाको असंख्यातगुणा बतलाया है । इस प्रकार विकृतिगोपुछाका कथन किया । $ १५२. प्रकृतिगोपुच्छा, उससे असंख्यातगुणी विकृतिगोपुच्छा, उससे असंख्यात गुणी अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिकी गोपुच्छा और उससे असंख्यातगुणी अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणि की गोपुच्छा इस प्रकार इन सबके मिलने पर जघन्य द्रव्य हुआ है यह अर्थ यहाँ लेना चाहिये । * जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थानसे एक परमाणू अधिक होने पर दूसरा प्रदेश स्थान होता है, दो परमाणु अधिक होने पर तीसरा प्रदेशस्थान होता है । इस प्रकार उस स्थिति विकल्पमें अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं । $ १५३. शंका - स्वामित्वका कथन प्रारम्भ करके वहीं स्थानोंका कथन क्यों किया ? समाधान — नहीं, क्योंकि यहाँसे आगे पहलेकी तरह स्थान प्ररूपणा के करने पर जघन्य व्यके स्वरूपको भूल जानेवाले या उसके स्वरूपको नहीं जाननेवाले शिष्यको स्थानोंका ज्ञान - १. ता० ना० प्रत्योः 'असंखेजगुणा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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