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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदे सवि हत्तीए सामित्तं १५७ एत्थेव तप्परूवणा कोरदे | अधवा जहण्णु कस्सहाणाणं सामित्तं परूपिदं । संपहि सटाणाणं सामित्त परूवणट्टमिदमुवकमदे 'तदो' जहण्णपदेसहाणादो त्ति भणिदं होदि । 'पदेसुत्तरं ' पदेसो परमाणू तेण उत्तरमहियं दव्वं विदियं पदेसहाणं होदि, ओकडकड्डणवसेण एगपदेसु तरहाणुवलंभादो । दुपदेसुत्तरमण्णं हाणं । तिपदेसुत्तरमण्णं हाणं । एवमताणि पदेस संतकम्माणाणि तम्मि हिदिविसेसे होंति त्ति पदसंबंधो कादव्वो । को कारण | S १५४. खविदकम्मंसिया किरियाए खग्गधारासरिसीए खलगेण विणा परिसक्किदजीवस्स ण द्वाणभेदो, कारणाभावादी । ण हि कारणे एगसरूवे संते कजाणं णाणतं, विरोहादो चि पच्चवाणसुत्तमेदं । एवं पच्चवदिस्स सिस्सस्स खविदकम्मंसियत्तं पडि भेदाभावे वि तक्कजभेदपदुष्पायणहमुत्तरमुत्तं भणादि । * जं तं जहाक्खयागदं तदो उक्कस्यं पि समयपवद्धमेत्तं । $ १५५. 'जं जहाक्यागर्द ' खविदकम्मंसियलक्खण किरियापरिवाडीए जं खयमागदं ति भणिदं होदि । 'तदो उक्कस्यं पि' तत्तो उवरि खविदकम्मंसियविसए वट्टमाणं जं जहाक्खयागदं दव्वसुक्कस्तं तं पि एगसमयपबद्धमेत्तं । जदि एसो खविदकम्मं सिय सुखपूर्वक कराना शक्य नहीं है, इसलिये यही उनका कथन करते हैं । अथवा जघन्य और उत्कृष्ट स्थानोंके स्वामित्वको कह दिया । अब शेष स्थानोंके स्वामित्वका कथन करनेके लिये यह उपक्रम है । सूत्रमें आये हुए 'तदो' पदसे जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान से लिया गया हैं । 'पदेसत्तरं ' इसमें आये हुए प्रदेशका अर्थ परमाणु है । उससे उत्तर अर्थात् अधिक द्रव्य दूसरा प्रदेशस्थान होता है, क्योंकि अपकर्षण- उत्कर्षण के कारण एक प्रदेश अधिकवाला स्थान पाया जाता है। दो परमाणु अधिकवाला दूसरा स्थान होता है, तीन परमाणु अधिकवाला तीसरा स्थान होता है । इस प्रकार अनन्त प्रदेशसत्कर्म उस स्थितिविकल्पमें होते हैं, ऐसा पदका सम्बन्ध करना चाहिये । किस कारण से १ १५४ | क्षपितकर्मा की क्रिया तलवार की धारके समान है, उसका स्खलन हुए बिना भ्रमण करनेवाले जीवके स्थान भेद नहीं हो सकता, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है ? और कारण के एकरूप होते हुए कार्यों में भेद नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसा होने में विरोध है । इस तरह यह सूत्र शंका रूप है । इस प्रकार शंकित शिष्य को क्षतिकर्माश पने में भेद न होने पर भी उसका कार्यभेद बतलाने के लिये आगे का सूत्र कहते हैं * क्षपित कर्माशविधिसे जो क्षयको प्राप्त हुआ है, उत्कृष्ट द्रव्य भी उससे एक सममप्र बद्ध ही अधिक होता है । $ १५५. 'जं जह|क्खयाद' इसका तात्पर्य है कि 'क्षपितकर्माश रूप क्रियाकी परंपरा के द्वारा क्षयको प्राप्त हुआ है ।' 'तदो उकस्सयं पि' अर्थात् उससे ऊपर क्षपितकर्मांशके विषय में वर्तमान, जिस रूपसे जो क्षयसे आया हुआ उत्कृष्ट द्रव्य है वह भी एक समय १. आ०प्रतौ 'तिपदेसुत्तरमणंवरमण्णं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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