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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहन्ती ५ लक्खणेणेवागदो तो एगसमयपवद्धमेत्ता परमाणू अन्भहिया ण होंति त्तिणासंकणिज, ओकडकडणपरिणामेसु जोगपरिणामेसु च सरिसेसु संतेसु वि एगसमयपबद्धमेत्ताणं कम्मक्खंधाणं हीणाहियत्तं होदि चेव, एगपरिणामेण ओकडकड्डिज माणपरमाणूणं समाणत्तं पडि नियमाभावादो । किण्णिमित्तो अणियमो ? उवसामणा-णिकाचणा-णिधत्तीकरणणिमत्तो । ण च तीहि करणेहि उप्पादकम्म परमाणुगय विसरिसत्तं खविदकम्मंसियलक्खणं विणासेदि, छसु आवासएसु अणूणाहिएस संतेसु तल्लक्खणविणासविरोहादो । जदि एवं तो एगसमयपबद्धं मोत्तूण बहुआ समयपबद्धा अहिया किण्ण होंति ? ण, सुत्तम्मि तहा अणुवद्वत्तादो | ण च परमाणुसारीणं तदणणुसारितं जुतं, विरोहादो । १५८ प्रबद्धमात्र होता है । शंका- यदि यह क्षपितकर्माशके लक्षणके द्वारा ही आया है तो एक समयप्रबद्ध मात्र परमाणु अधिक नहीं हो सकते ? समाधान — ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए; क्योंकि अपकर्षण- उत्कर्षणरूप और योगरूप परिणामों के समान होने पर भी एक समयप्रबद्धप्रमाण कर्मस्कन्धोंकी हीनाधिकता होती ही है, क्योंकि एक परिणामके द्वारा अपकर्षण अथवा उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले परमाणुओं के समान होनेका नियम नहीं है । शंका-अनियम होने का क्या निमित्त है ? समाधान - उपशामना, निघत्ती और निकाचनाकरण निमित्त है । शायद कहा जाय कि इन तीन करणोंके द्वारा कर्मपरमाणुओंमें जो हीनाधिकता आती है वह क्षपितकर्मा शरूप लक्षणको नष्ट कर देगी अर्थात् तब वह जीव क्षपितकर्माश नहीं रहेगा, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि क्षपितकर्माशके लिए कारणरूप छह आवश्यकों के न न्यून और न अधिक रहते हुए क्षपितकर्माशरूप लक्षणका विनाश होने में विरोध आता है । शंका- यदि इन तीन करणोंके द्वारा अधिक परमाणु भी हो सकते हैं तो क्षपितकर्माश जीवके एकसमयप्रबद्ध को छोड़कर बहुत समयप्रबद्ध अधिक क्यों नहीं होते ? समाधान --- नहीं, क्योंकि चूर्णिसूत्रमें ऐसा नहीं कहा है। और जो आगमप्रमाणका अनुसरण करते हैं उनके लिए उसका अनुसरण करना युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा करने में विरोध आता है । विशेषार्थ — अब तक मिध्यात्वके दो समय कालवाली एक स्थितिगत उत्कृष्ट सत्कर्मके स्वामी और जघन्य सत्कर्मके स्वामीका विवेचन किया। अब उसी स्थिति में कुल सत्कर्म स्थान कितने होते हैं और वे सान्तर क्रमसे हैं या निरन्तर क्रमसे हैं इसका खुलासा किया है । यद्यपि यह स्वामित्वका प्रकरण है, इसलिये यहां स्थानोंका कथन नहीं करना चाहिये तब भी इससे स्वामीका बोध हो ही जाता है, इसलिये इस प्रकरण में स्थानोंका कथन करनेमें कोई बाधा नहीं है । जघन्य प्रदेशसत्कर्मका उल्लेख पहले किया ही है वह पहला सत्कर्मस्थान है । इसमें एक प्रदेशकी वृद्धि होने पर दूसरा सत्कर्मस्थान होता है और दो प्रदेशों की वृद्धि होने पर तीसरा सत्कर्म स्थान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक स्थानके प्रति एक एक प्रदेश बढ़ाते जाना चाहिये । यह वृद्धिका क्रम एक समयप्रबद्धप्रमाण प्रदेशों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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