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________________ गा०२२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं ३९ कराया है और वहाँ उसके उत्कृष्ट योगस्थान बतलाया है ताकि कर्मप्रदेशोंका अधिकसे अधिक बन्ध होनेसे पूर्व सत्त्वसे सबसे अधिक वृद्धिको लिये हुए सत्त्व हो। इसी प्रकार दसवें गुणस्थानवर्ती क्षपकके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीयके अवशिष्ट बचे सब निषेकोंकी सत्त्वव्युच्छित्ति हो जानेसे उत्कृष्ट हानि होती है। यह तो हुआ ओघसे। आदेशसे सामान्य नारकियोंमें, प्रथम नरकमें, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जब हतसमुत्पत्तिककर्मवाला असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव जन्म लेता है तब उसके उत्कृष्ट वृद्धि बतलाई है, जो ओघके समान ही है। केवल एकेन्द्रियके स्थानमें असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय कर दिया है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीव उक्त स्थानोंमें जन्म नहीं ले सकता। इन स्थानोंमें उत्कृष्ट हानिका स्वामी अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टिको उस समय बतलाया है जब अनन्तानुबन्धीकी गुणश्रेणी रचनाका शीर्ष भाग निर्जीर्ण होता है। आशय यह है कि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना के लिये अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन करण जीव करता है। इनमेंसे अपूर्वकरणके प्रथम समयसे ही स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी और गुणतक्रम ये चार कार्य होने लगते हैं। स्थितिघातके द्वारा स्थितिसत्कर्मका घात करता है। अनुभागघातके द्वारा अनुभागसत्कर्मका घात करता है। तथा गुणश्रेणी करता है जिसका क्रम इस प्रकार है-अनन्तानुबन्धीके सर्वनिषेक सम्बन्धी सब कर्मपरमाणुओंमें अपकर्षण भागहारका भाग देकर एक भागप्रमाण द्रव्यका निक्षेपण उदयावलिमें करता है और अवशेष बहुभागप्रमाण कर्म परमाणुओंका निक्षेपण उदयावलीसे बाहर करता है। विवक्षित वर्तमान समयसे लेकर आवलीमात्र समयसम्बन्धी निषेकोंको उदयावली कहते हैं। उनमें जो एक भागप्रमाण द्रव्य दिया जाता है सो प्रत्येक निषेकमें एक एक चय घटते क्रमसे दिया जाता है। तथा उदयावलीसे ऊपरके अन्तर्मुहूर्तके समय प्रमाण जो निषेक होते हैं उन्हें गुणश्रेणी निक्षेप कहते हैं, इस गुणश्रेणी निक्षेपमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेपण करता है, अर्थात् उदयावलीसे बाहरकी अनन्तरवर्ती स्थितिमें असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यका निक्षेपण करता है । उससे ऊपरकी स्थितिमें उससे भी असख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेपण करता है। इस प्रकार गुणश्रेणी आयाम शीर्षपर्यन्त असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे निषेकोंका निक्षेपण करता है। इस गणश्रेणी आयामके अन्तिम निषेकोंको गणश्रेणी शीर्ष कहते हैंअर्थात् गुणश्रेणि रचनाका सिरो भाग गुणश्रेणि शीर्ष कहलाता है। यह गुणश्रेणिशीर्ष जब निर्जीर्ण होता है तो उत्कृष्ट हानि होती है। अथवा जैसे अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके समय अधःकरण आदि तीन परिणाम होते हैं वैसे ही दर्शनमोहकी क्षपणाके समय भी ये तीनों परिणाम और उनमें होनेवाला स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणि आदि कार्य होता है। विशेष बात यह है कि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनामें जो गुणश्रेणि रचना होती है उससे दर्शनमोहकी क्षपणामें होनेवाली गुणश्रेणिका काल थोड़ा है तथा निक्षिप्यमाण द्रव्य उससे असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा है, अतः अनन्तानुबन्धीके गुणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे दर्शनमोहके गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य असंख्यातगुणा है, अतः कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर यदि नरकमें उत्पन्न होता है तो उस जीवके गुणश्रेणिशीर्षका उदय होता है तब भी उत्कृष्ट हानि होती है। किन्तु यतः ऐसा मनुष्य यदि नरकमें उत्पन्न हो तो पहलेमें ही उत्पन्न होता है, न द्वितीयादि नरकोंमें उत्पन्न होता है और न भवनत्रिकमें ही उत्पन्न होता है, अतः प्रथम नरकमें उसीके उत्कृष्ट हानि होती है और शेष नरकोंमें तथा भवनत्रिकमें विसंयोजनावालेके गुणश्रेणिशीर्षकी निर्जरा होने पर उत्कृष्ट हानि होती है। तिर्यश्चगतिमें तिर्यश्चोंमें उत्कृष्ट वृद्धि तो ओघकी तरह हतसमुत्पत्तिककर्म करनेवाले एकेन्द्रिय जीवके संज्ञी पञ्चेन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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