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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ५५. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदे। ओघेण मोह० जह० वड्डी हाणी अवट्ठाणं च कस्स ? अण्णद० जो संतकम्मादो जहण्णाविरोहिणा असंखे०भागेण वड्डिदो तस्स जह० वड्डी हाइदे हाणी एगदरत्थावट्ठाणं । एवं सव्वणेरइयसवतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-सव्वदेवा त्ति । एवं जाव अणाहारि त्ति ।। पर्याप्तकोंमें जन्म लेने पर और वहाँ पहले कहे गये क्रमसे उत्कृष्ट परिणामयोगस्थानमें वर्तमान होने पर होती है तथा उत्कृष्ट हानि भोगभूमिकी अपेक्षा तो उत्कृष्ट भोमभूमिमें जन्म लेनेवाले कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके जब दर्शनमोहके गुणश्रेणिशीर्षका उदय होता है तब होती है और कर्मभूमिया संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यश्चके जब यह पञ्चमगुणस्थानमें वर्तमान होते हुए भी अनन्तानुबन्धीकी पूर्वोक्त क्रमसे विसंयोजना करता हुआ अनन्तानुबन्धीकी गुणश्रेणि रचना करके उसके गुणश्रेणिशीर्षकी निर्जरा करता है तब उत्कृष्ट हानि होती है। यहाँ सम्यग्दृष्टिके न बताकर संयतासंयतके बतलानेका कारण यह है कि अविरतसम्यग्दृष्टिसे संयतासंयतके असंख्यातगुणी निर्जरा बतलाई है और गुणश्रेणिका काल थोड़ा बतलाया है, अतः अविरतसम्यग्दृष्टिके गुणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे संयतासंयतके गुणश्रेणिशीर्षके द्रव्यका प्रमाण असंख्यातगुणा होनेसे हानिका परिणाम भी अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें इतनी विशेषता है कि वहाँ उत्कृष्ट वृद्धिके लिये हतसमुत्पत्तिक एकेन्द्रिय जीवको संज्ञो पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराना चाहिये । तथा उत्कृष्ट हानिके लिये संयमासंयम अथवा संयम धारण करके और गुणश्रेणि रचनाको करके मिथ्यात्वमें गिरकर तिर्यश्चायुका बन्ध करके पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें जन्म लेनेवाले जीवके जब संयमासंयम अथवा संयम धारण कालमें की हुई गुणश्रेणिका शीर्ष भाग उदयमें आता है तब उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये। शेष मनुष्योंमें ओघकी तरह समझना चाहिये । सौधर्म आदिके देवों में जो सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि देव सत्तामें स्थित कर्मप्रदेशोंको अधिक बढ़ाता है उसीके उत्कृष्ट वृद्धि होती है और मनुष्यपर्यायमें जो जीव उपशमश्रेणि पर चढ़कर गुणश्रेणि रचना करके मरकर सौधर्मादिकमें जन्म लेता है उसके जब गुणश्रेणिका शीर्ष उदयमें आता है तो उत्कृष्ट हानि होती है। सर्वत्र अवस्थानका विचार मूलमें बतलाई गई विधिके अनुसार जानना चाहिये। ६५५. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान किसके होता है ? जो सत्ता में स्थित कर्मप्रदेशोंको जघन्यके अविरोधी असंख्यातवें भाग रूपमें बढ़ाता है उसके जघन्य वृद्धि होती है तथा उतनी ही हानि होने पर जघन्य हानि होती है और दोनोंमेंसे किसी एकके जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियश्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये । इस प्रकार अनाहारो पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थी-जो जीव सत्तामें स्थित कर्मप्रदेशोंको असंख्यातवें भागप्रमाण घटाता है उसके जघन्य हानि होती है। जो असंख्यातवें भागप्रमाण बढ़ाता है उसके जघन्य वृद्धि होती है। किन्तु यह घटाया हुआ व बढ़ाया हुआ असंख्यातवाँ भाग ऐसा होना चाहिये जिसे जघन्य कहने में कोई विरोध न आ सके। ओघसे व आदेशसे जघन्य हानिमें सर्वत्र असंख्यातभागहानि होती है तथा जघन्य वृद्धिमें सर्वत्र असंख्यातभागवृद्धि होती है, अतः शेष सब मार्गणाओंका कथन ओघके समान कहा । तथा जघन्य वृद्धि या हानिके बाद जो अवस्थान होता है वह सर्वत्र जघन्य अवस्थान है यह कहा । इसके सिवा अवस्थान और किसी भी प्रकारसे जघन्य बन नहीं सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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