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________________ गो० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ३१५ उदयाभावेण अधट्टिदीए गलणाभावादो च । तेणेत्थ सांतरट्ठाणाणि चेवुप्पअंति । त्ति । चरिमसमयसवेदेण जहण्णजोगहाणादो पक्खेवु त्तरजोगेण परिणमिय बद्धसमयपबद्धेण परपयडीए संकंतदुचरिमादिफा लिकलावेण चरिमफालीए धरिदाए अनंताणि द्वाणाणि अंतरिदूण अण्णमपुणरुत्तद्वाणं होदि । एवं णाणाजीवे अस्सिदूण घोलमाणजहण्णजोगा पहुड पक्खेवुत्तरकमेण परिणमाविय णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगहाणे ति । एवं णीदे चरिमसमयअणिल्लेविदम्मि घोलमाणजहण्णजोगहाणमादिं काढूण जत्तियाणि जोगवाणाणि वत्तियमेत्ताणि संतकम्मड्डाणाणि होंति । * चरिमसमयसवेदेण उक्कस्सजोगेणे त्ति दुचरिमसमय सवेदेण जहणजो गहाणेणे त्ति एत्थ जोगड्डाणमेत्ताणि [ संतकम्मट्ठाषाणि ] लब्भंति । ९ ३५७. चरिमसमय सवेदेण उकस्सजोगेण बद्धचरिम- दुचरिमफालिदव्त्रं दुचरिमसमयसवेदेणजहण्णजोगेण बद्धसमयपबद्धस्स चरिमफालिदव्वं च घेत्तूण अण्णमपुणरुत्तड्डाणं होदि | दुचरिमसमय सवेदो जदि जहण्णजोगेण परिणदो होदि तो चरिमसमयसवेदो उकस्सजोगट्ठाणेण ण परिणमदि, संखेजेहि वारेहि विणा उक्कस्सजोगहाणेण परिणमणसत्ती अभावादो । अह जह चरिमसमयसवेदो उक्कस्सजोगट्ठाणेण परिणदो होदि तो दुचरिमसमयसवेदो ण जहण्णजोगो, अचंताभावेण पडिसिद्धत्तादो ति १ ण एस यहां सान्तर स्थान ही उत्पन्न होते हैं। अब एक ऐसा चरम समयवर्ती सवेदी जीव है जिसे योगस्थानमें प्रक्षेप करने से दूसरा योगस्थान प्राप्त हुआ है, उसने उसके द्वारा एक समयप्रबद्धका बन्ध किया । अनन्तर द्विचरम फालिसे लेकर प्रारम्भकी फालि तकके द्रव्यको पर प्रकृतिरूपसे संक्रान्त कर दिया और अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है तो उसके अनन्त स्थानोंका अन्तर देकर दूसरा अपुनरुक्त स्थान प्राप्त होता है । इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य परिणाम योगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक प्रक्षेपोसर के क्रमसे परिणमते हुए ले जाना चाहिए। इस प्रकार ले जाने पर अन्तिम समयवर्ती अनिर्लेपित द्रव्यमें जघन्य परिणाम योगस्थान से लेकर जितने योगस्थान होते हैं उतने सत्कर्मस्थान उत्पन्न होते हैं । * चरम समयवर्त्ती सवेदी जीवके द्वारा उत्कृष्ट योगसे तथा द्विचरम समयवर्त्ती सवेदी जीवके द्वारा जघन्य योगस्थानसे बन्ध करने पर यहां पर योगस्थानप्रमाण सत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं । ९ ३५७. अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा उत्कृष्ट योगका आलम्बन लेकर बाँधे गये समयप्रबद्धके अन्तिम और उपान्त्य फालिके द्रव्यको तथा उपान्त्य समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा जघन्य योगका आलम्बन लेकर बाँधे गये समयप्रबद्ध के अन्तिम फालिके द्रव्यको ग्रहण कर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । शंका-उपास्य समयवर्ती सवेदी जीव यदि जघन्य योगसे परिणत होता है तो अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीव उत्कृष्ट योगस्थानरूपसे परिणत नहीं हो सकता, क्योंकि संख्यात बार हुए बिना उत्कृष्ट योगरूपसे परिणमन करनेकी शक्तिका अभाव है । और यदि अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीव उत्कृष्ट योगरूपसे परिणत होता है तो उपान्त्य समयवर्ती सवेदी जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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