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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २३७ क्खवणमाढविय मिच्छत्तचरिमफालिं सम्मामिच्छ त्तस्सुवरि पक्खिविय द्विदो उव्व ल्लणाए उकस्सचरिमफालिं धरेदूण द्विदेण सरिसो । एदम्मि खवगदव्व ओदारिलमाणे जहा खविदकम्म सियस्स समयणादिकमणोयारणं कदं तहा ओयारेदव्वं । (एवमोदारिय द्विदेण अवरेगो सत्तमपुढवीए मिच्छत्तमुक्कस्सं करियागंतूण तिरिक्खेसुववञ्जिय पुणो मणुस्सेसुप्पजिदण जोणिणिकमणजम्मणेण अहवस्साणि गमिय सम्मत्तं घेत्तूण दंसणमोहक्खवणमाढविय मिच्छत्तचरिलफालिं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि पक्खिविय द्विदो सरिसो । एवं विदियपयारेण हाणपरूवणा कदा । २३३. संपहि संतकम्ममस्सिदूण सम्मामिच्छत्तहाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवजिय वेछावहीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालट्ठिदियं धरेदूण डिदिम्मि सव्वजहण्णसंतकम्मट्ठाणं । एदम्मि परमाणुत्तरादिकमेण वढावेदव्वं जाव दुगुणं सादिरेगं जादं ति । एवं वड्डिदूण हिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावट्ठीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय दोणिसेगेहि तिसमयकालडिदिए धरेदूण द्विदो सरिसो । पुणो एदस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण तिचरिमगोवच्छमेतदव्वं वड्डावेदव्व। एवं वड्डिदूण विदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवजिय वेछावट्ठीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय तिण्णि गोवुच्छाओ चदुसमयकालमोहनीयकी क्षपणाका आरम्भ कर मिथ्यात्वको अन्तिम फालिको सम्यग्मिथ्यात्वके ऊपर प्रक्षिप्त करके स्थित हुआ जीव उद्वलनाकी उत्कृष्ट अन्तिम फालिको धारणकर स्थित हुए जीवके समान है । क्षपकके इस द्रव्यको उतारने पर जिस प्रकार क्षपितकर्मा शको एक समयकम आदिके क्रमसे उतारा है उस प्रकार उतारना चाहिये । इस प्रकार उतारकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करके आया और तियचोंमें उत्पन्न हुआ। फिर मनुष्यों में उत्पन्न होकर योनिसे निकलनेरूप जन्मसे आठ वर्ष विताकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका भारम्भ करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको सम्यग्मिथ्यात्वके ऊपर प्रक्षिप्त कर स्थित है। इस प्रकार दूसरे प्रकारसे स्थानोंका कथन किया। ६२३३. अब सत्कर्मकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वके स्थानोंका कथन करते हैं। वे इस प्रकार हैं-क्षपितकाशकी विधिसे आकर और सम्यक्त्वको प्राप्त हो दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके तथा उत्कृष्ट उद्वलनाकाल द्वारा उद्वेलना करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवके सबसे जघन्य सत्कर्मस्थान होता है। फिर साधिक दूने होने तक इसे एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे बढ़ावे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो क्षतिकर्मा शकी विधिसे आकर और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा उद्वेलनाकर तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंको धारण कर स्थित है , फिर इसके ऊपर एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे त्रिचरम गोपुच्छाप्रमाण द्रब्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और सम्यकत्वको प्राप्त हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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