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________________ ३७ गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं परिणामजोगेण पदिदस्स तस्स उक्क० वढी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स असंजदसम्माइद्विस्स अणंताणुबंधिविसंजोएंतस्स अंतोमहुत्तं गंतूण विसंजोयणगुणसेढीसीसए उदिण्णे उक्क० हाणी । अधवा कदकरणिजभावेण तत्थुप्पण्णस्स जाधे गुणसेढीसीसयमुदयमागदं ताधे उक्क० हाणी। एवं पढमाए । भवण-वाण एवं चेव । णवरि हाणीए कदकरणिजसामित्तं णत्थि । विदियादि जाव सत्तमा त्ति मोह० उक्क० वही कस्स ? अण्णद० सम्माइहिस्स मिच्छाइ हिस्स वा तप्पाओग्गसंतकम्मादो उवरि वढावेंतस्स । तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । उक्क० हाणी पढमपुढविभंगो । णवरि कदकरणिजसामित्तं णत्थि । एवं जोदिसिएसु । $ ५४. तिरिक्खगदीए तिरिक्खाणमुक्कस्सवड्डी अवट्ठाणमोघं । उक० हाणी कस्स ? अण्णद० संजदासंजदस्स अणंताणु विसंजोजयस्स विसंजोयणगुणसेढीसीसए उदिण्णे तस्स उक्क० हाणी । अथवा उक्क. हाणी कदकरणिजस्स कायव्वा । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णव रि जोणिणीसु कदकरणिजसंभवो णत्थि । पंचिं०तिरिक्खअपज्ज० मोह० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्ण० एइंदियस्स हदसमुप्पत्तियकम्मंसियस्स पर्यन्त एकान्तानुवृद्धि योगसे वृद्धिको प्राप्त होकर परिणाम योगस्थानको प्राप्त हुआ उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है और उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाले अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टिके अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर विसंयोजनाकी गुणश्रेणिके शीर्षभागकी उदीरणा होनेपर उत्कृष्ट हानि होती है। अथवा जो कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि नरकमें उत्पन्न हुआ उसके जब गुणणिका शोष उदयमें आता है तब उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार प्रथम नरकमें जानना चाहिए । भवनवासी और व्यन्तरोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये। इतना विशेष है कि हानिकी अपेक्षा जो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिको हानिका स्वामी बतलाया है वह भवनवासी और व्यन्तरोंमें नहीं होता। दूसरी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? अपने योग्य प्रदेशसत्कर्मको आगे बढ़ानेवाले किसी भी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी पहली पृथ्वीकी तरह जानना चाहिये । इतना विशेष है कि इनमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा हानिका स्वामित्व नहीं होता। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिये। ६५४. तिर्यञ्चगतिमें सामान्य तिर्यञ्चोंमें उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी ओघकी तरह जानना चाहिये। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले अन्यतर संयतासंयतगुणस्थानवर्ती तिर्यश्चके विसंयोजनाकी गुणश्रेणिके शीषभागकी उदीरणा होनेपर उत्कृष्ट हानि होती है। अथवा तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होनेवाले कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट हानि करनी चाहिये। इसी प्रकार तीनों प्रकारके पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये । इतना विशेष है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता अतः उनमें कृतकृत्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट हानि नहीं कहना चाहिये। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो हतसमुत्पत्तिक कर्मकी सत्तावाला अन्यतर एकेन्द्रिय जीव पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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