SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ विहत्ति० जीवा । अप्प०विहत्ति० संखे गुणा । भुज० संखेजगुणा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ___५१. पदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुअं चेदि । तत्थ समुक्त्तिणं दुविहं-जह० उक० । उक्क० पय० । दुविहो णि०-ओघेण आदे० । ओघेण मोह० अत्थि उक्क० वड्डी हाणी अवट्ठाणं च । एवं सव्वत्थ गइमग्गणाए । एवं जाव अणाहारे त्ति । एवं जहण्णयं पिणेदव्वं । ६ ५२. सामित्तं दुविहं-ज० उक्क० । उक्क. पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक० वड्डी कस्स? अण्णद० एइंदियस्स हदसमुप्पत्तियकम्मस्स जो सण्णिपंचिंदियपजत्तएसु उववण्णल्लग्गो अंतोमुहुत्तमेगंताणुवड्डीए वड्डियूण तदो परिणामजोगं पदिदो तस्स उकस्सपरिणामजोगे वट्टमाणस्स उक्क० वड्डी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स खवगस्स सुहुमसांपराइयस्स चरिमसमए वट्टमाणयस्स । ५३. आदेसेण णेरइएसु मोह० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद० असण्णिस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण णेरइएसु उववण्णल्लग्गस्स अंतोमुहुत्तमेयंताणुवड्डीए वड्डियूण विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अल्पतर विभक्तिवाले उनसे संख्यातगुणे हैं और भुजगार विभक्तिवाले जीव उनसे भी संख्यातगुणे हैं । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । विशेषार्थ-ओघसे और आदेशसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अल्पतर विभक्तिवाले उनसे अधिक होते हैं और भुजगार विभक्तिवाले उनसे भी अधिक होते हैं। कहाँ कितने अधिक होते हैं इसका प्रमाण मूलमें बतलाया ही है।। ६५१. अब पदनिक्षेपका कथन करते हैं। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैंसमुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । उसमें में समुत्कीर्तना के दो भेद हैं-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट से प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय की प्रदेशविभक्तिमें उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान होते हैं । इसी प्रकार सर्वत्र गतिमार्गणामें जानना चाहिए। इस प्रकार अनाहारकपर्यन्त ले जाना चाहिए । इसी प्रकार जघन्यका भी कथन करके ले जाना चाहिये। ५२. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट से प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकार का है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय की उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला जो एकेन्द्रिय जीव संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ और अन्तमहत पर्यन्त एकान्तानुवृद्धि योगसे वृद्धिको प्राप्त होकर परिणामयोगस्थानको प्राप्त हुआ। उत्कृष्ट परिणाम योगस्थानमें वर्तमान उस जीवके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसी जीवके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है १ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें वर्तमान क्षपकके उत्कृष्ट हानि होती है। ६५३. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो असंज्ञी पश्चेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ नारकियोंमें उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy