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________________ गा० २२] उत्तरपयउिपदेसविहत्तीए सामित्तं ® सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सपदेसविहत्तमो को होवि ? ६९७. सुगममेदं। 8 गुणिदकम्म सिमो दसणमोहणीयक्खवप्रो जम्मि मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते पक्खित्तं तम्मि सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सपदेसविहत्तिो। ६ ९८. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसविहत्तिओ को होदि त्ति जादसंदेहसिस्साणं संदेहविणासणटुं 'दसणमोहणीयक्खवओ' ति मणिदं होदि । खविदकम्मंसियगुणा होनेसे उत्कृष्ट सञ्चय बन जाता है । इसका उत्तर यह दिया गया कि सम्यक्त्व आदिमें गुणश्रेणिनिर्जरा बतलाई है और वहाँ गुणसक्रमके द्वारा एक आवलिकालमें जितना द्रव्य अन्य प्रकृतियोंसे संक्रान्त होता है उससे कहीं असंख्यातगुणे द्रव्यकी निर्जरा हो जाती है, अतः सक्रान्त द्रव्यसे निर्जराको प्राप्त होनेवाला द्रव्य असख्यातगणा होता है, इसलिये क्षपक अपूर्वकरणमें उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय नहीं बनता। इस पर शंकाकारने कहा कि गुणसंक्रम भागहारसे अपकर्षण भागहार बड़ा बतलाया है। अपकर्षण भागहारके द्वारा ही अपकृष्ट हुए कर्मपरमाणुओंकी गुणश्रेणिरचना की जाती है और गुणश्रेणि रचना होनेसे ही गुणश्रेणिनिर्जरा होती है, अतः अपकर्षण भागहारके असंख्यातगुणा होनेसे जो परमाणु अपकृष्ट होंगे उनका परिमाण कम होगा और गुणसंक्रम भागहारके उससे असंख्यातगुणाहीन होनेसे उसके द्वारा जो परमाणु संक्रान्त होंगे उनका परिमाण अपकृष्ट द्रव्यसे असंख्यात योंकि भागहारके बड़ा होनेसे भजनफल कम आता है और भागहारके छोटा होनेसे भजनफल अधिक आता है, अतः निर्जराको प्राप्त द्रव्यसे संक्रमणको प्राप्त होनेवाले द्रव्यका परिमाण अधिक होनेसे क्षपक अपूर्वकरणमें ही उत्कृष्ट स्वामित्व बतलाना चाहिये। इसका उत्तर यह दिया गया कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि अपकर्षण भागहारमे सब गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणे हीन ही होते हैं । अपूर्वकरणमें जो अपकर्षण भागहार है उससे गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा अधिक है, अतः वहाँ संक्रान्त द्रव्यका प्रमाण निर्जरा को प्राप्त द्रव्यसे असंख्यातगुणा नहीं हो सकता। इस पर शंकाकारने कसायपाहुडकी एक गाथाका प्रमाण देकर यह सिद्ध करना चाहा कि उदयागत द्रव्यसे संक्रान्त द्रव्य अधिक होता है। इसका यह उत्तर दिया गया कि नौवें गुणस्थानमें अपगतवेदी होकर क्रोधसंज्वलनके क्षपणका आरम्भ करता हुआ जीव 'अश्वकर्णकरण' नामके करणको करता है, उस प्रकरणमें उक्त गाथा कही गई है, अतः उस गाथाके आधारसे अपूर्वकरणमें होनेवाले बंध, उदय और संक्रमका अल्पबहुत्व नहीं कहा जा सकता। अतः उक्त नोकषायोंका भी उत्कृष्ट स्वामी चरम समयवर्ती नारकी जीव ही होता है यह सिद्ध होता है। * सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला कौन जीव होता है ? ६ ९७. यह सूत्र सुगम है। * गुणितकर्मा शवाला जो जीव दर्शनमोहनीयका क्षपण करता है वह जब मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त करता है तब सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है। ६ ९८. सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला कौन होता है, इस प्रकार जिस शिष्यको सन्देह हुआ है उसका सन्देह दूर करनेके लिये 'दर्शनमोहनीयका क्षपक होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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