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________________ गा० २२] उत्तरपडिपदेसविहसीए सामित्तं ___६ ३७९. संपहि एगफालिक्खवगजोगेण तिण्णिफालिक्खवगं तिण्णिफालिक्खवगजोगेण एगफालिक्खवग परिणमाविय सेससमयखवगेसु समाणजोगेसु संतेसु एदं पदेससंतकम्महाणं पुबिल्लट्ठाणादो चडिदद्धाणमेत्तदुचरिम-तिचरिमफालियाहि अहियं होदि । तेणेदं चडिदद्धाणं रूवृणअधापवत्तेण खंडेदृण तत्थ एयखंडं दुगुणं सादिरेयमत्तं पुणरवि एगफालिक्खवगो हेट्ठा ओदारेदबो । एवमोदारिय पुव्विल्लदव्वेण सरिसं करिय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वो जाव पुव्बं चडिदजोगहाणं पत्तो त्ति । संपहि एगफालिक्खवगजोगम्मि चत्तारिफालिक्खवगे एगफालिक्खवगे च चत्तारिफालिक्खवगजोगम्मि हविदे चडिदद्धाणमेत्ताओ दुचरिम-तिचरिम-चदुचरिमफालीओ अहिया होति, चरिमफालीणं सरिसत्तुवलंभादो। पुणो रूवणअधापवत्तेण चढिदद्धाणं खंडिय तत्थ एयखंडं तिगुणं सादिरेयमेत्तमेयफालिक्खवगो हेट्ठा ओदारेदव्वो। एवं पंचादिफालीओ वि वड्डावेदव्वाओ जाव सव्वफालीओ विदियवारसंकंताओ त्ति (संपहि एवंविहेहि संखेजपरियट्टणवारेहि सव्वफालीओ उक्कस्सजोगं पावेंति । एदं कुदो णव्वदे ? आइरियभडारयाणमुपदेसादो। णिरंतरमुक्कस्सजोगेण परिणमणकालपमाणं 'वे चेव समया' त्ति सुत्तेण सह एदं वयणं किण्ण विरुज्झदे १ ण, आदेसुक्कस्सस्स वि उक्कस्सत्तभुवगमादो। तेण दुसमयूणदोआवलियाणमभंतरे जत्तिएसु समएसु उकस्सजोगहाणेण परिणमिदं ६३७९. अब एक फालि क्षपक योग द्वारा तीन फालि क्षपकको तथा तीन फालि क्षपक योग द्वारा एक फालि क्षपकको परिणमाकर शेष समयवर्ती क्षपकोंके समान योगवाले होनेपर यह प्रदेशसत्कर्मस्थान पहलेके स्थानसे जितना अध्वान आगे गये है उतनी द्विचरम और त्रिचरम फालियोंसे अधिक होता है, इसलिए इस आगे गये हुए अध्वानको एक कम अधःप्रवृत्तसे भाजितकर वहां एक फालि झपकको फिर भी एक खण्डको साधिक दूना करके जो हो उतना नीचे उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारकर और पहलेके द्रव्यके समानकर पुनः एक फालि क्षपकको पहले आगे गये हुए योगस्थानके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए । अब एक फालि क्षपक योगरूप चार फालि क्षपक और एक फालि क्षपकके चार फालि क्षपक योगमें स्थापित करने पर आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम, त्रिचरम और पतइचरम फालियाँ अधिक होती हैं, क्योंक चरम फालियोंकी समानता पाई जाती है। पन: एक कम अधःप्रवृत्तसे आगे गये हुए अध्वानको भाजितकर वहां पर एक फालि क्षपकको एक खण्डको साधिक तिगुना करके जो हो उतना नीचे उतारना चाहिए। इस प्रकार सब फालियोंके दूसरी बार संक्रान्त होने तक पाँच आदि फालियोंको भी बढ़ाना चाहिये। अब इस प्रकारके संख्यात परिवर्तनरूप बारोंके द्वारा सब फालियाँ उत्कृष्ट योगको प्राप्त होती हैं। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्य भट्टारकोंके उपदेशसे जाना जाता है शंका-निरन्तर उत्कृष्ट योग रूपपे परिणमन करनेरूप कालका प्रमाण दो ही समय है, इस सूत्रके साथ यह वचन विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता ? समाधान-नहीं, क्योंकि भादेश उत्कृष्टको भी उस्कृष्टरूपसे स्वीकार किया है। इसलिए दो समय कम दो आवलियोंके भीतर जितने समयोंमें उत्कृष्ट योगस्थानरूपसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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