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________________ उत्तरपय डिपदेसविहत्तीए सामित्तं १४५ दुगुणिदाणमण्णोण्णन्भासजणिदरासी रुवूणा भागहारो ठवेदव्वो । एवं ठविदे तदित्थविगि दिगोकुच्छा आगच्छदि । एसा वि गुणसंकमेण परपयडिं गच्छमाणदव्वस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? गुणसंकम भागहारं पेक्खिदूण पलिदोवमन्यंतरणाणागुणहाणिसला गाणमण्णोष्णन्भत्थरासीए असंखेजगुणत्तादो । गा २२ ] $ १४३. संपहि पलिदोवममेत्ते ट्ठिदिसंतकम्मे सेसे तदो डिदिखंडयमागाएंतो संखेजे भागे आगाएदि । किं कारणं १ साहावियादो । एवं सेस - सेसट्ठिदीए संखेजे भागे आगाएंतो ताव गच्छदि जाव दूरावाकिट्टिद्विदिसंतकम्मं चेट्टिदं त्ति । एत्थ विगिदिगोवुच्छपमाणाणयणं पुव्वं व कायव्वं । णवरि अंतोकोडा कोडिअब्भंतरगाणागुणहाणि सलागाण मण्णोण्णव्भत्थरासीए रुवूणाए दूराव किट्टीए परिहीणअंतोकोडाकोडिअब्भंतरणाणागुणहाणि सलागाण मण्णोष्णन्भत्थरासी रूवूणा भागहारो ठवेयव्वो । एवं विदे तदित्थविगिदिगोबुच्छा होदि । एसा वि पयडिगोवुच्छादो गुणसंकमभागहारेण परपयडिं गच्छमाणदव्वस्स असंखे० भागो । कुदो १ गुणसंकमभागहारादो पलिदो ० संखे ० भागमेतदूराव किट्टिट्ठदीए अब्भंतरणाणागुणहाणि सलागाणमण्णोष्णब्भत्थरासीए असंखेञ्जगुणत्तादो । एदस्स असंखेजगुणत्तं कत्तो णव्वदे ? सम्मत्तुव्वेल्लणकालाब्भंतरणाणागुणहाणि सलागाण मण्णोष्णव्भत्थरासी अधापवत्तभागहारादो असंखेज गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमें एक कम भागहारराशि करनी चाहिये । ऐसा स्थापित करने पर उस स्थानकी विकृतिगोपच्छा आती है। यह विकृतिगोपुच्छा भी गुणसंक्रमके द्वारा परप्रकृतिरूप से संक्रमण करनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है, क्योंकि गुणसंक्रमभागहारकी अपेक्षा पल्योपमके भीतर की नानागुणहानिशलाकाओं की अन्योन्याभ्यस्त - राशि असंख्यातगुणी है । § १४३. अब पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मके शेष रहने पर उसमेंसे स्थितिकाण्डको ग्रहण करते हुए स्थितिकाण्डकके लिये उस स्थितिके संख्यात बहुभागको ग्रहण करता है, क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है। इस प्रकर शेष शेष स्थिति के संख्यात बहुभागको ग्रहण करता हुआ दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्मके प्राप्त होने तक जाता है । यहाँ पर भी पहलेकी तरह ही विकृति गोपुच्छाका प्रमाण लाना चाहिए। इतना विशेष है कि अन्तःकोडाकोडीके अभ्यन्तरवर्ती नाना गुणहानिशलाकाओं की रूपोन अन्योन्याभ्यस्तरा शिकी भागहाररूपसे दूरापकृष्टिसे हीन अन्तः कोडाकोडीके अभ्यन्तरवर्ती नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिमें एक कम राशिकी स्थापना करनी चाहिए । इस प्रकार स्थापित करने पर उस स्थानकी विकृतिगोपुच्छा होती है । यह विकृतिगोपुच्छा भी प्रकृतिगोपुच्छासे गुणसंक्रम भागहारके द्वारा परप्रकृतिरूपसे संक्रमण करनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है; क्योंकि गुणसंक्रमभागहारसे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण दूरापकृष्टि स्थिति के अभ्यन्तरवर्ती नानागुणहा निशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी है । शंका- यह राशि गुणसंक्रम भागहारसे असंख्यातगुणी है यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान - सम्यक्त्व प्रकृतिके उद्वेलनाकालके अन्दरकी नानागुणहानिशलाकाओंकी १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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