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________________ गा०२२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १७५ पारभिय पुविल्लसम्मामिच्छत्तकालभंतरे मिच्छत्तचरिमफालिं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि पक्खिविय समयूणावलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाओ गालिय द्विदस्स एगणिसेगदव्वं दुसमयकालहि दियं सरिसं । अधवा एत्थ अक्कमेण विणा कमेण समयूणादिसरूवेण ओयरणं पि संभवदि तं चिंतिय वत्तव्वं ।। ___$ १७१. संपधि इमं घेत्तूण एदम्मि परमाणुत्तर-दुपरमाणुत्तरादिकमेण एगो गोवुच्छविसेसो पगदिगोवुच्छाए एगवारमोकड्डिददव्वं विज्झादसंकमण गददव्वं च वड्ढावेदव्वं । एवं बड्डिदूण हिदेण अण्णो जीवो समयूणपढमछावढि भमिय मिच्छत्तं खविय एगणिसेगं दुसमयहिदियं धरेदण हिदो सरिसो। एवं पढमछावट्ठी वि समयूणादिकमेण ओदारेदव्वा जाव अंतोमुहुत्तणपढमछावही सव्वा ओदिण्णे त्ति । ___ १७२. तत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा-जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवजिय पुणो वेदगसम्मत्तं घेत्तूण तत्थ सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय दंसणमोहणीयक्खवणाए अब्भुडिय मिच्छत्तं खविय तत्थ एगणिसेगं दुसमयकालहि दि धरेदूण द्विदो । एसो सव्वपच्छिमो । एदस्स दव्वं चत्तारि पुरिसे अस्सिद ण वड्ढावेदव्वं जाव अपुव्वगुणसेढीए पयडि-विगिदिगोवुच्छाणं च दव्वमुक्कस्सं जादं त्ति । एवं वड्डाविदे अणंताणि द्वाणाणि पढमफद्दए उप्पण्णाणि । मोहनीयके क्षपणका प्रारम्भ करके, सम्यग्मिथ्यात्वके पूर्वोक्त कालके अन्दर मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको सम्यग्मिथ्यात्वमें क्षेपण करके और एक समय कम आवली प्रमाण गुणश्रोणिकी गोपुच्छाओंका गालन करके स्थित जीवका दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकका द्रव्य समान होता है । अथवा यहाँ अक्रमके बिना क्रमसे एक समय कम, दो समय कम आदि रूपसे उतारना भी संभव है। उसे विचार कर कहना चाहिये। १७१. अब इस उक्त द्रव्यको लेकर उसमें एक परमाणु, दो परमाणु आदिके क्रमसे एक गोपच्छा विशेष प्रकृतिगोपच्छामें एकबार अपकृष्ट किया हुआ द्रव्य और विध्यातसंक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिरूप हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके एक समयकम प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेवाला अन्य जीव समान है। इस प्रकार प्रथम छयासठ सागरको दो समय कम आदिके क्रमसे तब तक उतारना चाहिये जब तक अन्तर्मुहूतकम प्रथम छयासठ सागर पूरे हों। १७२. अब उनमेंसे सबसे अन्तिम विकल्पको कहते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य स्वामित्वकी जो विधि कही है उस विधिसे आकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके फिर वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करके, वेदक सम्यक्त्वमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो, फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके मिथ्यात्वके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करे। वह सबसे अन्तिम विकल्प है। इसके द्रव्यको चार परुषोंकी अपेक्षासे तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणि और प्रकृतिगोपुच्छा तथा विकृतिगोपुच्छाका उत्कृष्ट द्रब्य हो । इस प्रकार बढ़ानेपर प्रथम स्पर्धकमें अनन्त स्थान उत्पन्न होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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