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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १३७ वेछावद्विसागरोवमेसु गलिदसेसदव्वं होदि । पुणो दिवड्डगुणहाणिणा तम्मि ओवट्टिदे पयडिगोवुच्छा आगच्छदि । राशिसे पूर्वोत्पन्न राशिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उससे उत्पकर्षित द्रव्यमें भाग देने पर दो छयासठ सागरमें गलितसे बाकी बचे द्रव्यका प्रमाण होता है। फिर उस द्रव्यमें डेढ़ गुणहानिसे भाग देने पर प्रकृतिगोपुच्छा आती है। विशेषार्थ—पहले जो मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य बतला आए हैं उसमें प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा इस तरह दोनों प्रकारकी गोपुच्छाएँ पाई जाती हैं। गोपुच्छाका अर्थ गायको पूँछ है। जैसे गायकी पूँछ उत्तरोत्तर पतली होती जाती है वैसे ही कर्मनिषेक एक एक गुणहाणिके प्रति उत्तरोत्तर एक एक चय कम होनेसे उनकी रचनाका आकार भी गायकी पूंछके समान हो जाता है। जो निषेक रचना स्वाभाविक होती है उसे प्रकृति गोपुच्छा कहते हैं। स्वाभाविकका अर्थ है बन्धके समय जो निषेक रचना हुई है प्रायः वह । अपकर्षण या उत्कर्षण द्वारा जो कर्मपरमाणु नीचे ऊपर होते रहते हैं या संक्रमण द्वारा जो कर्म परप्रतिरूप होते हैं उनसे प्रकृतिगोपुच्छाकी हानि नहीं मानी गई है, क्योंकि उनके ऐसा होनेका कोई क्रम है या वे ऐसे किसी हद तक ही होते हैं, अतः इससे प्रकृतिगोपुच्छामें उल्लेखनीय विकृति नहीं पैदा होती । तथा जो निषेकरचना क्रमहानि और क्रमवृद्धिरूप न रहकर व्यतिक्रमको प्राप्त हो जाती है उसे विकृतिगोपुच्छा कहते हैं। यह विकृतिगोपुच्छा स्थितिकाण्डक घातसे प्राप्त होती है। अब प्रकृतमें यह देखना है कि प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण कितना है ? यहाँ जघन्य प्रदेशसत्कर्मका प्रकरण है, इसलिए जो जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें कर्मस्थितिप्रमाण काल तक घूम लिया है उस एकेन्द्रियका कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें प्राप्त होनेवाला द्रव्य लो और इसमें अन्तमुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारका भाग दो। इससे एकेन्द्रियके संचित द्रव्यमेंसे उत्कर्षित द्रव्यका प्रमाण आ जाता है। उत्कर्षित द्रव्यका प्रमाण इसीलिए लाया गया है कि जघन्य स्वामित्वके समयमें जो प्रकृति गोपुच्छा रहती है वह इस उत्कर्षित द्रव्यमेंसे ही शेष रहती है, संचित द्रव्यमेंसे नहीं, क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रियके मिथ्यात्वका स्थितिबन्ध कुछ कम एक सागर प्रमाण होता है और यहाँ गोपुच्छा कर्मस्थितिके अन्तिम समयसे लेकर साधिक १३२ सागरके बादकी प्राप्त करना है, परन्तु इतने काल तक एकेन्द्रियसम्बन्धी बन्धसे प्राप्त स्थितिवाले निषेक रह नहीं सकते, अतः संचित द्रव्यको छोड़कर यहाँ भपने आप उत्कर्षित द्रव्यकी प्रधानता प्राप्त हो जाती है। अतः यह सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव कर्मस्थितिप्रमाण कालको समाप्त करके साधिक १३२ सागर काल तक त्रसोंमें घूमता है तब कहीं जघन्य द्रव्य प्राप्त होता है और त्रसोंमें संज्ञी त्रसोंमें श्रोणिको छोड़कर अन्यत्र अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध होता है, अतः अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरके भीतर प्राप्त होनेवाली नाना गुणहानिशलाकाओंकी जो अन्योन्याभ्यस्तराशि प्राप्त हो, एक कम उसमें एक सौ बत्तीस सागर कम अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर प्राप्त होनेवाली नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग दो और इस प्रकार जो राशि प्राप्त हो उसका भाग पूर्वोक्त उत्कर्षणसे प्राप्त हुए द्रव्यमें देने पर उस उत्कर्षित द्रव्यमेंसे एकसौ बत्तीस सागरके भीतर जितना द्रव्य गल जाता है उससे बाकी बचे हुए द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। यतः संचित द्रव्यको प्राप्त करनेके लिये एक समयप्रबद्धको डेढ़गुणहानिसे गुणित करना पड़ता है, अतः यहाँ प्रकृतिगोपुच्छाको प्राप्त करनेके लिए गल कर शेष बचे हुए द्रव्यमें डेढ़ गुणहानिका भाग दो। इस प्रकार इतनी क्रियाके करनेपर प्रकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है। १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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