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________________ गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए कालो १५ होदि ? जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० वासपुधत्तं, उक्क० अणंतकालं। आदेसेण णेरइएसु मोह० उक० केवचिरं ? जहण्णुक० एगस० । अणुक्क० ज० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सत्तमाए । पढमादि जाव छट्टि ति मोह० उक्क० ओघ । अणुक्क० जह० जहण्णहिदी समऊणा, उक्क. सगसगुक्कस्सद्विदीओ। तिरिक्ख० उक० ओघं । अणुक० जहण्ण. खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० अणंतकाल । पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि उक्क० ओघं । अणुक्क० जहण्णुक्कस्सद्विदीओ । पंचिंदियतिरिक्खअपज० उक० ओघं । अणुक्क० ज० खुद्दाभवग्गहणं समय॒णं, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज० । मणुसतियम्मि मोह० उक० ओघं । अणुक्क० जह० खुद्दाभ० अंतोमु० समयूणं, उक्क० सगढिदी । देवेसु मोह० उक्क० ओघं । अणुक्क० ज० दसवस्ससहस्साणि समऊणाणि, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि। एवं सव्वदेवाणं । णवरि अणुक० ज० सगसगजहण्णहिदी' समऊणा, उक्क० उक्कस्सहिदी संपुण्णा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल है। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेतीससागर है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिये। पहलीसे लेकर छठी पृथिवी तक मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह जानना चाहिए। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जानना चाहिए। तिर्यश्चोंमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह जानना चाहिए। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवों में उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह है और अनत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल औघकी तरह है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। शेष तीन प्रकारके मनुष्योंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल सामान्य मनुष्योंमें एक समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और मनुष्य पर्याप्त तथा मनुष्यनियोंमें एक समय कम अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। -----------...--.-........ १. प्रा०प्रतौ 'ज० एगस० जहण्णट्ठिदी' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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