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________________ १८५ मा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं कारणं । कुदो ? साहावियादो। अणंतगुणहीण-अणंतगुणपरिणामाणं कज्जं कथं सरिसं होदि ? ण, मेरुगिरिमेत्तसोवण्णपुंजेणुप्पाइदमोहादो दहरपुत्तहंडेणुप्पाइदमोहस्स महल्लत्तुवलंभादो। पुणो उवरि तदणंतरमेगपरिणामट्ठाणमसंखेजलोगभागहारेण खंडिदेगखंडवुड्डीए कारणं होदि । एदं परिणामठ्ठाणमपुणरुतं ति जहण्णपरिणामेण सह पुध हवेदव्वं । पुषो पदेसओकडणाए एदेण सरिसपरिणामहासु' असंखेजलोगमेचेसु गदेसु तदो' अण्णमेगमपुणरुत्तहाणं लब्भदि, थुबिल्लगुणसेढिपदेसग्गमसंखे०लोगेहि खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तपदेसब्भहियगुणसेढिविण्णासस्स कारणत्तादो। एदं पि परिणाम घेत्तूण पुव्वं पुध दृविददोहं परिणामाणं पासे उवेदग्वं । पुणो वि एत्तियमेत्तियमद्धाणमुवरि गंतूण अपुणरत्तपरिणामट्ठाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि लब्भंति । पुणो अणेण विधाणेणुचिणिदूण गहिदासेसपरिणामहाणाणमपुवकरणपढमसमए अवणिदासेसपुविल्लपरिणामपंतियागारेण रचणा कायब्धा । एवं विदियसमयादि जाव चरिमसमओ ति पुणरुत्तपरिणामाणमयणयणं काऊण तत्थतषअपुणरुसपरिणामाणं चेव एगसेढिआगारेण विण्णासो कायव्वो। संपहि एत्थ पढमसमयम्मि रचिदविदिय स्वभावसे ही गुणश्रोणिसम्बन्धी जघन्य प्रदेशरचनाका हो कारण है। क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है। शंका—अनन्तगुणे हीन और अनन्तगुणे परिणामोंका कार्य समान कैसे हो सकता है ? समाधान—यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि सुमेरुपर्वतके बराबर सोनेके ढेरसे जो मोह उत्पन्न होता है उस मोहसे छोटे पुत्रके खण्ड करनेसे उत्पन्न हुआ मोह बड़ा पाय। जाता है। पुनः उन असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थानोंका अनन्तरवर्ती एक परिणामस्थान जघन्य द्रव्यके असंख्यात लोकप्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डप्रमाण वृद्धिका कारण होता है। यह परिणाम स्थान अपुनरुक्त है, इसलिए जघन्य परिणामके साथ इसे पृथक् स्थापित करना चाहिये। फिर प्रदेशोंका अपकर्षण करने में उक्त परिणामके समान असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंके हो जानेपर एक अन्य अपुनरुक्त स्थान प्राप्त होता है, क्योंकि यह परिणाम पूर्वोक्त गुणश्रेणिके प्रदेशसमूहके असंख्यात लोकप्रमाण समान खण्ड करके उनमें से एक खण्डप्रमाण प्रदेश अधिक गुणश्रेणिकी रचनामें कारण है। इस परिणामको भी ग्रहण करके पहले पृथक स्थापित किए गये दो परिणामोंके पास में स्थापित करना चाहिए। इसके बाद भी असंख्यात लोकप्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर अलग अलग असंख्यात लोकप्रमाण अपुनरुक्त परिणामस्थान प्राप्त होते हैं। पुनः इस विधिसे एकत्र किए हुए सब परिणामस्थानोंकी अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अलग किए गए सब परिणामोंकी एक पंक्तिरूपसे रचना करनी चाहिए। इसी प्रकार दूसरे समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त पुनरुक्त परिणामोंको घटाकर वहांके अपुनरुक्त परिणामोंकी ही एक पंक्तिरूपसे रचना करनी चाहिए । अब यहां प्रथम समयमें स्थापित दूसरे परिणामरूप परिणमाकर शेष समयोंके जघन्य परिणामरूप यदि १. आ०प्रतौ 'सरिसपरिणामेहि हाणेसु' इति पाठः । २. भा०प्रतौ 'मेत्तेसु तदो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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