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________________ जयधवलासहिदै कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मतोमुहुत्तमच्छिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालट्ठिदि धरेदूण हिदं जाव पावदि ताव ओदिण्णो त्ति भणिदं होदि। २१७. संपहि इमं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसा अंतोमुहुत्तमेतकालमोकड्डिद्ग विणासिजमाणदव्वेण कुणो विज्झादेग गददव्वेणब्भहियावहिदा ति। णवरि सम्मत्तकालम्मि सव्वजहण्णम्मि विज्झादसंकमणागददव्वेणूणा त्ति वत्तव्वं । एवं वड्डिदूण विदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेण' देवेसुप्पन्जिय उवसमसम्मत्तं पडिवजिय पुणो वेदगसम्मत्तमगंतूण मिच्छत्तं पडिवण्णो दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालट्ठिदि धरिय द्विदो सरिसो। संपधि एदं दवमुव्बेल्लणभागहारेणेपसमयम्मि गददव्वेणेगगोवच्छाविसेसेण च अब्भहियं कायव्वं । पुणो एदेण समऊणुक्कस्सुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालहिदि धरेदूण हिदो सरिसो । एवं जाणिदणोदारेदव्वं जाव सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालो सेसो त्ति । पुणो एसा गोवच्छा पंचहि वड्डीहि वड्डावेदव्वा जाव उक्कस्सा जादे त्ति । णारगचरिमसमयम्मि मिच्छत्तमुक्कस्सं कादण तिरिक्खेसु देनेसुववजिय उवसमसम्मत्तं घेत्तूण हो और वहांपर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक रहे। फिर मिथ्यात्वमें जाकर और वहां उस्कृष्ट उद्वेलनाकालके द्वारा उद्वेलना करके दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुआ जीव जब जाकर प्राप्त हो तब तक उतारते जाना चाहिये, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ६२१७. अब इस जीवको ग्रहण करके एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे तब तक बढ़ाते जाना चाहिए जब तक अन्तर्मुहूर्तमें जितने समय हों उतने गोपुच्छविशेष, एक अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थितिका अपकर्षण करके नष्ट हुआ द्रव्य और विध्यातसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य वृद्धिको प्राप्त होवे । किन्तु इतनी विशेषता है कि सबसे जघन्य सम्यक्त्व कालके भीतर विध्यात संक्रमणके द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यसे न्यून उक्त द्रव्यको कहना चाहिये । इस प्रकार द्रव्यको बढ़ा कर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर देवोंमें उत्पन्न होकर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ फिर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त न होकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और वहां दीर्घ उद्वलनाकालके द्वारा उद्वलना कर दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित है । अब इस द्रव्यको उद्वलना भागहारके द्वारा एक समयमें जितना द्रव्य अन्य प्रकृतिको प्राप्त हो उससे और एक गोपुच्छविशेषसे अधिक करे। इस प्रकार अधिक किये हुए द्रव्यको धारण करनेवाले इस जीवके साथ एक समय कम उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उद्वलना करके दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार जानकर सबसे जघन्य उद्वलना कालके शेष रहने तक उतारना चाहिये। फिर इस गोपुच्छाको पाँच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक वह उत्कृष्ट न हो जाय । उक्त कथनका तात्पर्य यह है कि नारकियोंके अन्तिम समयमें मिथ्थात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करके क्रमशः तियचों और देवोंमें उत्पन्न होकर, उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर फिर १. ता०प्रतौ 'जहण्णम्मि वि सामित्तविहाणेण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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