SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२१ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय जाव एगणिसेगं दुसमयकालहिदि धरेदण द्विदं पावदि ताव ओदिण्णो त्ति भणिदं होदि । ____२१८. संपहि दोगोवुच्छाओ तिसमयकालहिदियाओ घेत्तूणवसेसठ्ठाणार्ण सामित्तपरूवणं कस्सामो । तं जहा-जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण वे छावडीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेयं दुसमयकालट्ठिदियं धरेदूण हिदस्स सम्मामिच्छत्तं ताव वड्ढावेदव्वं जाव तस्सेव दुचरिमगोवुच्छा वड्विदा ति । एवं वडिदण हिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावट्ठीओ दीहुव्बेल्लणकालं च भमिय दो गोवुच्छाओ तिसमयकालहिदियाओ धरेदण हिदो सरिसो। संपहि एवं दव्वं परमाणुत्तरकमेण विज्झादसंकमेणागददव्वेणूणदोगोवुच्छविसेसमेत्तमेगसमएण ओकड्डणाए विणासिज्जमाणदव्वं च सादिरेयं वड्ढावेदव्वं । एदेण समयूणवेछावडीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय दोगोवुच्छाओ तिसमयकालहिदियाओ धरेदूण द्विदो सरिसो। संपहि एवं जाणिदण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणविदियछावही ओदिण्णा त्ति । पुणो एदं दव्वं परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्य जाव पुत्वं वड्डिदअंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसेहिंतो दुगुणमेत्तगोवच्छविसेसा विज्झादसंकमेण अंतोमुहुत्तमागददव्वणूणअंतोमुहुत्तमोकडिदूण विणासिजमाणदव्वं च सादिरेयं वड्डिदं ति । एदेण अण्णेगो मिथ्यात्वमें जाकर सबसे जघन्य उद्वलनाके द्वारा उद्वेलना करके दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवको प्राप्त होता है तब तक उतारना चाहिये । ६२१८. अब तीन समय कालकी स्थितिवाली दो गोपुच्छाओंको ग्रहण करके अवशेष स्थानोंके स्वामित्वका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर फिर मिथ्यात्वमें जाकर उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा उद्वलना करके दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवके सम्यग्मिथ्यात्व तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक उसी जोवके द्विचरम गोपुच्छा बढ़ जाय । इस प्रकार द्विचरम गोपुच्छाको बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ अन्य एक जीव समान है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर दो छयासठ सागर और उत्कृष्ट उद्वेलना काल तक भ्रमण करके तीन समय कालकी स्थितिवाली दो गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। अब इसके द्रव्यको उत्तरोत्तर एक परमाणुके अधिक क्रमसे विध्यात संक्रमणके द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यसे न्यून दो गोपुच्छ विशेषके और एक समयमें अपकर्षण द्वारो विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यके अधिक होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमणकर और उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा उद्वेलना कर तीन समय कालकी स्थितिवाली दो गोपुच्छाओंको धारण कर स्थित हुआ जीव समान है। अब इस प्रकार जानकर अन्तर्मुहूर्त कम दूसरे छयासठ सागर कालके समाप्त होने तक उतारते जाना चाहिए । फिर इस द्रव्यको उत्तरोत्तर एक-एक परमाणुके अधिक क्रमसे तब तक बढ़ाना जब तक एक अन्तर्मुहूर्तमें जितने समय हों उनकी पहले बढ़ाई हुई गोपुच्छविशेषोंसे दूने गोपुच्छविशेष, विध्यातसंक्रमणके द्वारा अन्तर्मुहूर्त में प्राप्त हुए द्रव्यसे कम अन्तर्मुहूर्ततक अपकर्षण करके विनाशको प्राप्त हुआ साधिक द्रव्य न बढ़ जाय । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy