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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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एव मे गेदु चरिमफालिमधियं काऊण दुचरिमफालिट्टाणाणं पंचमादिपरिवाडीओ जाव तिरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्ताओ जाणिदूण परूवेदव्वाओ ।
९ ३९७. संपहि सव्वपच्छिमं दुचरिमफालिद्वाणपरूवणं कस्सामो । तं जहाचरम - दुरिमसमयम्मि घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय अधियारदुचरिमसमयम्मि डिदस्स पदेस संतकम्मट्ठाणं जहण्णजोगादो सादिरेयद्गुणमद्धाणं गंतूण दिएगफालिक्खवगसंतकम्मट्ठाणेण समाणत्तादो पुणरुत्तं । संपहि अपुणरुत्तदु चरिमफालिपदेस संत कम्मडाणामुप्पाण दोफा लिक्खवगो अकमेण दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तपक्खेउत्तरजोगं णेदव्वो । एवं णोदे दुरूऊणधापवत्तभागहार मे त्तचरिमफालिद्वाणाणि बोलेदूण उवरिमचरिमफालिडाणमपावेण दोन्हं पि विच्चाले अणरुत्तं होदूण एवं डाणमुपदि । रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तपक्खे उत्तरजोगस्स दोफालिक्खवगो किंण ढोइदो ! ण, रूऊणधापवत्तभागहार मे तदुचरिमफालीहिंतो एगचरिमफालीए समुप्पत्तीए । णच एवं दुश्चरिमफालिट्ठाणं मोत्तूण चरिमफालिट्ठाणस्स उत्पत्तिप्पसंगादो | ण च एवं, पुणरुत्तहाणुप्पत्ती । तम्हा दुरूवूणधापवत्तभागहारमेत्तपक्खेवाहियजोगं चेव णेदव्वो । संपहि एदमेत्थेव हविय एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण वढावेदव्वो जाव तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोगं पत्तोति ।
फालिको अधिक करके द्विचरम फालिस्थानोंकी पञ्चम आदि परिपाटियोंको तीन रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र जानकर प्ररूपणा करनी चाहिए ।
६ ३९७. अब सबसे अन्तिम द्विचरम फालिस्थानका कथन करते हैं । यथा चरम और द्विचरम समय में घोलमान जघन्य योगसे बन्ध कर अधिकृत द्विचरम समय में स्थित हुए जीवके प्रदेशसत्कर्मस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि वह जघन्य योगसे साधिक दुगुना अध्वान जाकर स्थित एक फोलि क्षपकके सत्कर्मस्थानके समान है। अब अपुनरुक्त द्विचरम फालि प्रदेशसत्कर्म - स्थानोंके उत्पन्न करने के लिये दो फालि क्षपकको युगपत् दो रूप कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योग तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार ले जाने पर दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालिस्थानोंको बिताकर उपरिम चरम फालिस्थानको नहीं प्राप्त होकर दोनोंके ही मध्य में अपुनरुक्त होकर यह स्थान उत्पन्न होता है ।
शंका -- एक कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगका दो फालिक्षपक क्यों नहीं ढोया गया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र द्विचरम फालियोंसे एक चरम फालिकी उत्पत्ति होती है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर द्विचरम फालिके स्थानको छोड़कर चरम फालिस्थानकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर पुनरुक्त स्थानकी उत्पत्ति होती है । इसलिये दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगको ही प्राप्त कराना चाहिये ।
अब इसे यहीं पर स्थापित करके एक फालिक्षपकको तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योग के प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए ।
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