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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १२१ जो गुणिदकम्मंसिओ अधो सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदसमाणो संखेजाणि तिरियभवग्गहणाणि जोविदूण पुणो वासपुधत्ताउअमणुस्सेसु उववञ्जिय तत्थ सव्वलहुएण कालेण संजमं पडिवजिय अंतोमुहुत्तकालेण कालं' करिय अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो तस्स पढमसमयउप्पण्णदेवस्स उक्क० पदेसविहत्ती। सम्मत्त ० देवोघं । तिण्हं वेदाणमुक्क० पदेस० कस्स ? जो पूरिदकम्मंसिओ मणुस्सेसु उववजिय सव्वलहुं संजमं पडिवजिदण अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक्कस्सिया पदेसविहत्ती । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । एवमुक्कस्ससामित्तं गदं। कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाला जीव नीचेकी सातवीं पृथिवीसे निकलकर और तिर्यश्चोंके संख्यात भव तक जीवित रहकर पुनः वर्षपृथक्त्वकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर वह अति शीघ्र कालके द्वारा संयमको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर मरकर अपने अपने देवोंमें उत्पन्न हुआ उस देवके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । सम्यक्व प्रकृतिका भंग सामान्य देवोंके समान है। तीन वेदोंको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो कमांशको पूरकर और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अतिशीघ्र संयमको प्राप्त करके अन्तमुहूर्तके भीतर मरकर अपने अपने देवोंमें उत्पन्न हआ, उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उसके तीन वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। इस प्रकार जानकर अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ एक साथ क्रमसे चारों गतियोंमें उत्कृष्ट स्वामित्वका खुलासा करते हैं। यथा-ओघमें बतलाया है कि जो जीव गुणित काशकी विधिसे आकर कर्मस्थिति कालके भीतर अन्तिम बार तेतीस सागरकी आयु लेकर सातवें नरकमें उत्पन्न हुआ है उस नारकीके भवके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व और संज्वलन चारके बिना बारह कषाय और छह नोकषाय की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । ओघसे बतलाई गई यह विधि सामान्य नारकियोंके भी बन जाती है, अतः यहां भी उक्त कमों के स्वामित्वका कथन उक्त प्रकारसे किया। यहाँ शेष कर्मों के उत्कृष्ट स्वामित्वके कथनमें ओघसे कुछ विशेषता है। बात यह है कि ओघसे चार संज्वलनका उत्कृष्ट स्वामित्व क्षपकणिमें प्राप्त होता है और क्षपकणि नरकमें सम्भव नहीं, इसलिए इन चारों कषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व भी मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंके समान बतलाया है। यहाँ इतना विशेष जानना कि किसी उच्चारणामें मिथ्यात्वादि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्वामित्व आयु बन्धके पूर्व बतलाया है, अतः इस मतके अनुसार यहाँ भी उसी प्रकार समझना । ओघसे सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म क्षायिक सम्यक्वको प्राप्त करनेवाले गुणितकर्माश जीवके बतलाया है किन्तु नरकमें क्षायिक सम्यक्षकी प्राप्तिका प्रारम्भ नहीं होता, अतः यहाँ मूलमें जो विधि बतलाई है उस विधिसे ही सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश सत्कम प्राप्त होता है। कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरकर नरकमें उत्पन्न होता है. अत गुणितकाशवालो जीवको नरकसे निकालकर और तियचोंमें भ्रमाकर वर्षपृथक्त्वकी आयुके साथ मनुष्यों में उत्पन्न कराना चाहिए और वहाँ सम्यक्व प्राप्तिको योग्यतो आते ही सम्यक्त्वको प्राप्त कराकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ कराना चाहिये और जैसे १. आ०प्रतौ० 'मुहुत्ता कालं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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