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________________ २५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती गुणसेढिणिजराए समाणत्तण्णहाणववत्तीदो। किं च ण णवकबंधदव्वस्स पहाणतं, 'अणंताणुबंधीणं मिच्छत्तभंगो' त्ति सुत्तेण खविदकम्मंसियत्तस्स परू विदत्तादो। ण च णवकबंधे घेप्पमाणे खविदकम्मंसियत्तं फलवंतं, खविद-गुणिदकम्मंसियाणं संजुत्तद्धाए समाणजोगुवलंभादो। ण च वयाणसारी चेव आओ ति सव्वट्ठ अस्थि णियमो, संजुत्तपढमसमयप्पहु डि आवलियमेत्तकालम्मि वओ पत्थि त्ति सेसकसाएहिंतो अधापवत्तसंकमेण अणंताणबंधीणमागच्छमाणदव्वस्स अभावप्पसंगादो। ण च अभावो, 'बंधे अधापवत्तो' ति सुत्तेण सह विरोहादो। ण च बंधणिबंधणस्स संकमस्स संकममवेक्खिय पवुत्ती, विप्पडिसेहादो। ण पडिग्गहदव्वाणसारी चेव अण्णपयडीहिंतो आगच्छमाणदव्वं ति णियमो वि एस्थ संभवइ, संजुजमाणावत्थं मोत्तूण तस्स अण्णत्थ पवुत्तीदो। ण च वयाणुसारी आओ ण होदि चेवे ति णियमो वि, सव्वघादीणं पि पदेसग्गेण देसघादीहि समाणत्तप्पसंगादो । ण च अणंताणुबंधोणं वुत्तक्कमो णबुंसयवेदादिपयडीणं वोत्तु सकिन्जदे, विसंजोयणपयडीहि अविसंजोयणपयडीणं समाणत्तविरोहादो । तम्हा संकेतदव्वस्सेव पहाणत्तमिदि दडव्वं । मानने पर क्षपितकर्माश और गुणितकाशके अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों के द्वारा गुणश्रेणि निर्जरा समान नहीं बन सकती है। दूसरे इस प्रकार भी नवकबन्धके द्रव्यकी प्रधानता नहीं है, क्योंकि 'अनन्तानुबन्धियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है' इस सूत्र द्वारा क्षपितकोशपनेका कथन किया है। परन्तु नक्कबन्धके ग्रहण करने पर क्षपितकोशपनेकी कोई सफलता नहीं रहती, क्योंकि क्षपितकर्माश और गुणितकर्माश इन दोनोंके अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होनेके कालमें समान योग पाया जाता है। और व्ययके अनुसार ही आय होता है सो यह नियम भी सर्वत्र नहीं है, क्योंकि ऐसा नियम मानने पर अनन्तानुबन्धियोंका संयोग होनेके पहले समयसे लेकर एक आवलि कालके भीतर अनन्तानुबन्धीका व्यय नहीं है इसलिये उस समय शेष कषायोंके द्रव्यमेंसे अधःप्रवृत्त संक्रमणके द्वारा जो अनन्तानुबन्धीका द्रव्य आता है उसका अभाव प्राप्त होता है। परन्तु उसका अभाव तो किया नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर उक्त कथनका 'अधःप्रवृत्त संक्रमण बन्धके समय होता है' इस सूत्रके साथ विरोध आता है। यदि कहा जाय कि जो संक्रम बन्धके निमित्तसे होता है उसकी प्रवृत्ति संक्रमके निमित्तसे होने लगे, सो भी बात नहीं है, क्योंकि इसका निषेध है। यदि यह नियम लागू किया जाय कि ग्रहण किये कये द्रव्यके अनुसार ही अन्य प्रकृतियोंमेंसे द्रव्य आता है सो यह नियम भी यहां सम्भव नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धिके संयोगकी अवस्थाके सिवा इस नियमकी अन्यत्र प्रवृत्ति होती है। तथा 'व्ययके अनुसार आय होता ही नहीं' ऐसा भी नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर सर्वघातियोंके भी प्रदेश देशघातियोंके समान प्राप्त हो जायगे । तथा अनन्तानुबन्धियोंके लिये जो क्रम कह आये हैं वह नपुंसकवेद आदि प्रकृतियोंके लिये भी कहा जा सकता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि विसंयोनारूप प्रकृतियोंके साथ अविसंयोजनारूप प्रकृतियोंकी समानता माननेमें विरोध आता है। इसलिये यहाँ संक्रमणको प्राप्त हुए द्रव्यकी ही प्रधानता है। ऐसा जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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