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________________ गा० २१] उत्तरपतिपदेसविहत्तीए सामित्तं वयादो आओ बहुओ. होदि तो पुरिसव दोदएण खवगसेढिं चडिय णवंसयव दक्खवणपदेसादो उवरिमअद्धाए गुणसंकमेण णवंसयव दादो पुरिसव दं गच्छमाणदव्वस्स असंखे०भागो चेव अहिओ होदि, ण तत्तो बहुओ ति णिच्छओ कायव्यो । कुदो एवं परिच्छिजदे ? सोदएण सामित्तविहाणण्णहाणुववत्तीदो। किंच जदि सुत्तद्दिट्टक्खविदकम्मंसियस्स अपच्छिमद्विदिखंडयचरिमफालीए जहण्णपदं ण होदि तो तिस्से जहण्णपदसामियस्स पुध परूवणं करेज, अण्णहा तजहण्णावगमोवायाभावादो। ण च पुध परूवणं कदं, तम्हा सुत्तुत्तखविदकम्मंसियस्सेव अपच्छिमद्विदिखंडयचरिमसमए चरिमफालीए जहण्णपदं ति घेत्तव्व। २९६. संपहि एदिस्से चरिमफालीए उवरि परमाणुत्तरादिकमेण एगगोवुच्छा विज्झादेण गच्छमाणदव्वं च वड्ढावयव्यं । एवं वड्डिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण समऊणव छावडीओ भमिय णवंसयव दचरिमफालिं धरेमाणविदो सरिसो । एवमेगेगगोवच्छं ससंकेतदव्व वड्डाविय वड्डाविय वछावडीओ ओदारेदवाओ जाव पढमछावहीए दिवड्डपलिदोवमं सेसं ति । संपहि इमं संधिं तिण्णि पलिदोवमसव्वसंधीओ च णादण जहा खविदकम्मंसियस्स एगफद्दयपरूवणाए परविदं यद्यपि किसी प्रकारसे व्ययसे आय बहुत होती है तो भी पुरुषवे के उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़कर नपुंसकवेदके क्षय होनेवाले द्रव्यसे आगेके कालमें गुणसंकमके द्वारा नपुंसकवेदमेंसे पुरुषवेदको प्राप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातवां भाग ही अधिक होता है उससे अधिक नहीं होता, इसलिये पुरुषवेदके उदयसे चढ़नेवालेकी अपेक्षा नपुंसकवेदसे चढ़नेवालेका द्रव्य अधिक नहीं होता यहाँ ऐसा निश्चय करना चाहिये । शंका—इसप्रकार किस प्रमाणसे जाना ? समाधान-अन्यथा स्वोदयसे स्वामित्वका कथन नहीं बन सकता । दूसरे यदि सूत्र में कहे गये क्षपितकर्मा शके अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिमें जघन्य पद नहीं होता है तो उसके जघन्य पदके स्वामीका अलगसे कथन करते, अन्यथा उसके जघन्यका ज्ञान होने का अन्य कोई उपाय नहीं है । परन्तु अलगसे कथन नहीं किया है अतएव सूत्र में कहे गये क्षपितकर्मा शिक जीवके ही अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें प्राप्त अन्तिम फातिमें जघन्य पद होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। ६२९६. अब इस अन्तिम फालिके ऊपर उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे एक गोपुच्छाको और विध्यातभागहारके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इसप्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो क्षपिरुकर्मा शकी विधिसे आकर और एक समय कम दो छथासठ सागर काल तक भ्रमण कर नपुंसकवेदकी अन्तिम फालिको धारण कर स्थित है। इस प्रकार संक्रान्त होनेवाले द्रव्यके साथ एक एक गोपुच्छाको बढ़ाते हुए दो छयासठ सागर कालको तब तक उतारना चाहिए जब उतारते उतारते प्रथम छयासठ सागरमें डेढ़ पल्य शेष रह जाय। अब इस सन्धिको और तीन पल्यकी सब सन्धियोंको जानकर जिस प्रकार क्षपितकर्मा शके एक स्पर्धकके कथनके समय प्रतिपादन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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