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________________ ५७ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागो ६७६. संपहि मोह० दव्वमणंतखंड कादण पुव्वमवणिदेयखंडं दव्वं सव्वधादिपडिबद्धं घेत्तण तम्मि आवलि . असंखे०भागेण खंडिदेयखंडं पुध हविय सेसदव्वं सरिसतेरहजे कादण पुणो आवलि० असंखे०भागं विरलिय पुव्वमवणिददव्वपमाणमाणेयूण समखंडं करिय दादण तत्थेयखंडमुच्चा सेसबहुखंडाणि घेत्तूण पढमपुजे पक्खित्ते मिच्छत्तभागो होदि । एवं सेसपजेसु वि सव्वकिरियं जाणिऊण भागाभागे कीरमाणे अणंताणु०लोभ-माया-कोह-माण-पच्चक्खाणलोह-माया-कोह-माण-अपच्चक्खाणलोभ-माया-कोह-माणभागा जहाकम होति । एत्थालावे भण्णमाणे अपञ्चक्खाणमाणमादिं कादण जाव मिच्छत्तं ताव विसेसाहियकमेण णेदव्वं । अहवा एदं चेव सव्वधादिपडिबद्धसव्वदव्वं घेत्तण सरिसतेरहपुजे कादूण पुणो आवलि० असंखे०भागेण पढमपुजम्मि भागं घेत्तूण पुध द्वविय तदो एवं चेव' भागहारं परिवाडीए विसेसाहियं कादण जहाकम सेसेकारसपुजेसु वि भागं घेत्तण भागलद्धसव्वदव्वमेगापिंडं करिय तेरसजे पक्खित्ते मिच्छत्तभागो होदि । सेसा वि जहाकममणंताणु लोभादीणं भागा पच्छाणुपव्वीए होंति त्ति घेत्तव्वं । एत्थ सव्वत्थ वि भागहारस्स विसेसाहियभावकरणे रासिपरिहाणिमुहेण सिस्साणं पडिवोहो समुप्पाएयव्यो । एत्थ वि पुव्वुत्तो ६७६. अब मोहनीयके द्रव्यके अनन्त खण्ड करके पहले घटाये हुए सर्वघातिप्रतिबद्ध एक खण्डप्रमाण द्रव्यको लेकर उसमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो। एक भागको पृथक् स्थापित करके शेष द्रव्यके समान तेरह पुंज करो। फिर आवलिके असंख्यातवें भागका विरलन करके पहले अलग स्थापित किये गये द्रव्यके समान खण्ड करके विरलित राशिपर दो। उन खंडोंमेंसे एक खण्डको छोड़कर शेष सब खण्डोंको लेकर पहले जमें मिला देनेपर मिथ्यात्वका भाग होता है। इस प्रकार शेष पुजोंमें भी सब क्रियाको जानकर भागाभाग करने पर क्रमशः अनन्तानुबन्धी लोभ, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, प्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण मान, अप्रत्याख्यानावरण लोभ, अप्रत्याख्यानावरण माया, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और अप्रत्याख्यानावरण मानके भाग होते हैं। यहाँ आलापका कथन करनेपर अप्रत्याख्यानावरण मानसे लेकर मिथ्यात्व पर्यन्त विशेष अधिक विशेष अधिक क्रमसे ले जाना चाहिए। अथवा इसी सर्वघातीसे प्रतिबद्ध सब द्रव्यको लेकर समान तेरह पुंज करके फिर आवलिके असंख्यातवें भागसे प्रथम पुजमें भाग देकर एक भागको पृथक् स्थापित करो। फिर इसी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारको क्रमसे विशेष अधिक विशेष अधिक करके क्रमानुसार शेष ग्यारह पुजोंमें भी भाग दे देकर भाग देनेसे लब्ध सत्र द्रव्यका एक पिण्ड करके तेरहवें पुजमें मिला देनेपर मिथ्यात्वका भाग होता है। शेष भाग भी क्रमानुसार पश्चादानुपूर्वी क्रमसे अनन्तानुबन्धी लोभ आदिके होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यहाँ सर्वत्र ही भागहार आवलिके असंख्यातवें भागके विशेष अधिक करनेपर जो राशिकी उत्तरोत्तर हानि होती है उसी द्वारा शिष्योंको बोध उत्पन्न कराना चाहिये । यहाँ पर भी पूर्वोक्त ही आलाप करना चाहिये, १. श्रा-प्रतौ 'एवं चेव' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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