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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २०१ त्ति । पुणो तत्थ ठविय वड्डाविजमाणे गुणसंकमण गददव्वमेत्तं वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदूण हि देण अण्णण गुणसंकमकालदुचरिमसमयहिदो सरिसो। एवं गुणसंकमण गददव्वं वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव पढमसमयउवसमसम्मादिहि त्ति । एत्थ दृविय वड्डाविजमाणे गुणसंकमेण गददव्वमपुव्व-अणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाओ च वड्ढावेदव्वाओ। एवं वड्डिदूण ट्ठिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मिच्छादिद्विचरिमसमए हिदो सरिसो । पुणो चरिमसमयमिच्छादिद्वितकालयपञ्चग्गबंधेणूणदुचरिमगुणसेढिमत्तं' वड्ढावेदव्यो । एदेण जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण मिच्छादिट्ठी दुचरिमसमयहिदो सरिसो । एवमोदारेदव्वं जाव आवलियअपुव्वकरणमिच्छादिद्वित्ति। एत्तो हेट्ठा ओदारेहूँ ण सक्कदे, उदए गलमाणएइंदियगोवुच्छादो संपहि वज्झमाणपंचिंदियसमयपबद्धस्स असंखेजगुणत्तादो। संपहि इमेण सरिसं णेरइयचरिमसमयदव्वं घेत्तूण चत्तारि पुरिसे आसेज परमाणुत्तरकमेण पंचवड्डीहि वड्डावयव्वं जाव ओघक्कस्सदव्वं पत्तं ति । एवं खविदकम्मंसियमस्सिदूण संतकम्महाणपरूवणा कदा। १८९. संपहि गुणिदकम्मंसियमासेज संतकम्मट्ठाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा–समयूणावलियमेत्तफद्दयाणं हाणाणं पुव्वं व परूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो । उक्कस्सचरिमफालिदव्वं धरेदूण हिदेण अण्णेगो रइयचरिमसमए थिउक्कसंकमण गुणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ गुणसंक्रमणके द्विचरम समयमें स्थित हुआ अन्य एक जीव समान है। इस प्रकार गुणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य बढ़ाकर उपशमसम्यग्दृष्टिका प्रथम समय प्राप्त होने तक उतारना चाहिये। फिर यहाँ पर स्थापित करके बढ़ानेपर गुणसंक्रमके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य तथा अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकी गुणणि गोपुच्छाओंका द्रव्य बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ क्षपितकाशकी विधिसे आकर मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें स्थित हुआ अन्य एक जीव समान है। फिर अन्तिम समय मिथ्यादृष्टिके उसी कालमें नवीन बन्धसे न्यून द्विचरम गुणश्रेणिप्रमाण द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर द्विचरम समयमें स्थित हुआ मिथ्यादृष्टि जीव समान है। इस प्रकार अपूर्वकरण मिथ्यादृष्टिके एक आवलि काल तक उतारना चाहिये । अब इससे नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि उदयमें एकेन्द्रियके गलनेवाले गोपुच्छसे इस समय पंचेन्द्रियके बंधनेवाला समयप्रबद्ध असंख्यातगुणा है। अब इसके समान नारकीके अन्तिम समयवर्ती द्रव्यको लेकर चार पुरुषोंके आश्रयसे उत्तरोत्तर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा ओघसे उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये। इस प्रकार क्षपितकोशकी अपेक्षा सत्कर्मस्थानोंका कथन किया। ६१८९ अब गुणितकर्माशकी अपेक्षा सत्कर्मस्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार हैएक समय कम आवलिप्रमाण स्पधकोंके स्थानोंका कथन पहलेके समान कर लेना चाहिए, क्योंकि उनके कथनसे इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। अब एक ऐसा जीव है जो १. ता प्रतौ -तुचरिमसेढिमेत्त' इति पाठः । २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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