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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ३२१ भिण्णबुद्धिगेज्झाणं भिण्णकजाणं च एयत्तविरोहादो। ण च अण्णम्मि विणढे अण्णस्स विणासो, अइप्पसंगादो। तम्हा दुसमयूणदोआवलियपदुप्पण्णजोगहाणमेत्ताणि संतकम्महाणाणि पुरिसवेदस्स होति त्ति घडदे । ___६३६१. अथवा अण्णेण पयारेण दुसमयूणदोआवलियगुणगारसाहणं कस्सामो। तं जहा-चरिमसमयसवेदेण घोलमाणजहण्णजोगेण जो बद्धो समयपबद्धो सो सवेदचरिमसमयप्पहुडि समयूणदोआवलियमेत्तमद्धाणं गंतूण जहण्णसंतकम्मट्टाणं होदि, दुचरिमादिफालीणं तत्थामावादो। संपहि जहण्णदव्वस्सुवरि णाणाजीवे अस्सिदूण घोलमाणजहण्णजोगप्पहुडि पक्खेवत्तरकमेण चरिमसमयसवेदो वडावेदव्वो जावुकस्सजोगट्ठाणं पत्तो ति । एवं वड्डाविदे एगचरिमफाली उक्कस्सा होदि । संपहि अण्णेगेण दुचरिमसमयम्मि तप्पाओग्गजहण्णजोगेण चरिमसमयम्मि उक्कस्सजोगेण पबद्ध तिण्णि फालीओ दीसंति, अहियारदुचरिमसमयम्मि अवहिदत्तादो। संपहि इमस्स दुचरिमसमयसव दस्स' तप्पाओग्गजहण्णजोगो घोलमाणजहण्णजोगादो असंखे गुणो, दुचरिमसमयम्मि घोलमाणजहण्णजोगेण परिणदस्स संखेजवारेहि विणा विदियसमए चेव बुद्धिग्राह्य हैं और अलग अलग कार्यवाले हैं, इसलिए उनके एक होने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि अन्यका विनाश होने पर अन्यका विनाश हो जाता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर अतिप्रसङ्ग दोष आता है। इसलिए दो समय कम दो आवलियोंसे उत्पन्न हुए योगस्थानप्रमाण पुरुषवेदके सत्कर्मस्थान होते हैं यह बात बन जाती है। ६३६१. अथवा अन्य प्रकारसे दो समय कम दो आवलिप्रमाण गुणकारोंकी सिद्धि करते हैं। यथा--अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवने घोलमान जघन्य योगके द्वारा जो समयप्रबद्ध बाँधा वह सवेदी जीवके अन्तिम समयसे लेकर एक समय कम दो आवलिप्रमाण स्थान जाकर जघन्य सत्कर्मस्थान होता है, क्योंकि द्विचरम आदि फालियोंका वहाँ पर अभाव है। अब जघन्य द्रव्यके ऊपर नाना जीवोंका आश्रयकर घोलमान जघन्य योगसे लेकर एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवको बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर एक अन्तिम फालि उत्कृष्ट होती है। अब अन्य एक जीवके द्वारा द्विचरम समयमें तत्प्रायोग्य जघन्य योगका अवलम्बन लेकर और अन्तिम समयमें उत्कृष्ट योगका अवलम्बन लेकर बन्ध करने पर तीन फालियाँ दिखलाई देती हैं, क्योंकि वे विवक्षित द्विचरम समयमें अवस्थित हैं। अब इस विचरम समयवर्ती सवेदी जीवका तत्प्रायोग्य जघन्य योग घोलमान जघन्य योगसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि द्विचरम समयमें घोलमान जघन्य योगरूपसे परिणत हुए उसके संख्यात बारके बिना दूसरे समयमें ही उत्कृष्ट १. प्रा०प्रतौ 'इमस्स चरिमसमयसवेदस्स' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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