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________________ ३२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ संतकम्मट्ठाणेसु तप्पाओग्गजहण्णजोगहाणप्पहुडि उवरिमद्धाणं मोत्तूण हेट्ठिमद्धाणं सेढीए असंखे०भागमेत्तं घेत्तूण पुध द्ववेदव्वं । एवं सेसफालियासु वि सव्वजहण्णहाणसंखाफालियाए जहण्णहाणादो हेहि मासेसटाणाणि घेतूण पुव्वं पुध दृविदट्ठाणाणमुवरि ढोएदण ठवेदव्वाणि । एवं ठविय पुणो ताणि दुसमयणदोआवलियमेत्तखंडाणि कादण तत्थ एगेगखंडं घेत्तूण दुसमयूणदोआवलियमेतद्वाणपंतीए हेढा संधाणे कदे एगेगपंतीए आयामो किंचूणजोगट्ठाणद्धाणमत्तो चेव होदि ण संपुण्णो, हेहिमतदसंखेजदिभागमेत्तट्ठाणाणमणुवलंभादो। तेण दुसमयूणाहि दोहि आवलियाहि जोगहाणेसु गुणिदेसु पुरिसवेदस्स पदेससंतकम्मट्ठाणाणि ण उप्पजंति, तहाणेहिंतो समहियहाणुप्पत्तिदंसणादो त्ति ? ण एस दोसो, दव्वाहियणयावलंबणाए दुसमयूणदोआवलियमेत्तगुणगारुवलंभादो। तिसमयूणदोआवलियमेत्तगुणगाररूवाणमत्थित्तं होदु णाम, तेसिं गुणिजमाणस्स जोगट्टाणद्धाणपमाणत्तुवलंभादो। णावरेगरूवस्स' अत्थितं, तत्थ गुणिज्जमाणस्स सगहेद्विमासंखेजदिभागेणूणजोगट्ठाणद्धाणपमाणत्तवलंभादो त्ति ? ण, रूवावयवक्खए रूवस्स क्खयाभावादो। ण च अवयवहिंतो अवयवी अभिण्णो, णाणेगसंखाणं अब अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके अन्तिम फालिरूपसे प्राप्त हुए प्रदेशसत्कर्मस्थानोंमें तत्प्रायोग्य योगस्थानसे लेकर उपरिम अध्वानको छोड़कर जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधस्तन अध्वानको ग्रहण कर पृथक् स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार शेष फालियोंमें भी सब जघन्य स्थानकी संख्याप्रमाण फालिके जघन्य स्थानसे नीचेके सब स्थानोंको ग्रहण कर पहले पृथक् स्थापित किये गये स्थानोंके ऊपर लाकर स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार स्थापित करके पुनः उनके दो समय कम दो आवलिप्रमाण खण्ड करके उनमें से एक एक खण्डको ग्रहणकर दो समय कम दो आवलिप्रमाण स्थानोंकी पंक्तिके नीचे मिलाने पर एक एक पंक्तिका आयाम कुछ कम योगस्थानके अध्वानप्रमाण ही होता है संपूर्ण नहीं होता, क्योंकि नीचेके उसके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान नहीं पाये जाते। इसलिए दो समय कम दो आवलियांसे योगस्थानोंके गुणित करने पर पुरुषवेदके प्रदेशसत्कर्मस्थान नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उन स्थानोंसे कुछ अधिक स्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनयका आलम्बन करने पर दो समय कम दो आवलिप्रमाण गणकार उपलब्ध होता है। शंका–तीन समय कम दो आवलिप्रमाण गुणकार रूपोंका अस्तित्व होवे, क्योंकि वे गुण्यमानके योगस्थान अध्वानप्रमाण उपलब्ध होते हैं। परन्तु अन्य रूपका अस्तित्व नहीं प्राप्त होता, क्योंकि वहाँ पर गुण्यमान अपने अधस्तन असंख्यातवें भाग कम योगस्थान अध्वानप्रमाण उपलब्ध होता है? समाधान-नहीं, क्योंकि रूपके अवयवका क्षय होने पर रूपके क्षयका अभाव है। यदि कहा जाय कि अवयवोंसे अवयवी अभिन्न है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भवयव नाना संख्यावाले होते हैं, अवयवी एक संख्यावाला होता है, दोनों हो अलग अलग १. भा०प्रती 'गवरि एगरूवस्स' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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