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________________ गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए कालो १७ २१. जहणए पदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० जहण्ण० जहण्णुक ० एगस० । अज० अणादिओ अपजवसिदो अणादिओ सपञ्जवसिदो । आदेसे० णेरइएस मोह० ज० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० दसवस्ससहस्त्राणि समऊणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुष्णाणि । पढमादि जाव सत्तमिति ज० ओघं । अज० सगसगजहण्णहिदी समऊणा, उक्क० उसी संपूण्णा । तिरिक्ख पंचयम्मि मोह० ज० ओघं । अज० ज० सगसगजहण्णहिदी समऊणा, उक्क० उक्कस्सट्ठिदी' संपूण्णा । एवं मणुसचउकम्मि । देवाणं णेरइयभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति । णवरि अज० ज० जहण्णहिदी समयूणा, उक० उस्सट्ठिदी संपुणा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति । क्योंकि यह एक समय उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका है । तथा इन तीनों प्रकारके मनुष्योंके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जो उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बतलाया है सो यहाँ स्थितिसे अपनी अपनी कायस्थिति लेनी चाहिये। इसी प्रकार देवों में सर्वत्र अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण घटित कर लेना चाहिये । किन्तु जघन्य काल कहते समय जघन्य स्थितिमें से एक समय कम कर देना चाहिये, क्योंकि यह एक समय उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिसम्बन्धी है । आगे अनाहारक मार्गणा तक यही क्रम जानना चाहिये । § २१. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी की जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल अनादि अनन्त और अनादि सान्त है । आदेशसे नारकियों में मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समयकम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है । पहलेसे लेकर सातवें नरक तक जघन्य प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समयकम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । पाँचों प्रकारके तिर्यों में मोहनीयको जघन्य प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समयक्रम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार चार प्रकार के मनुष्यों में जानना चाहिए । सामान्य देवोंमें नारकियोंके समान भंग है । इसी प्रकार भवनवासियों से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अजघन्य विभक्ति का जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । विशेषार्थ — ओघसे और आदेश से सर्वत्र मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि स्वामित्वानुगमके अनुसार बतलाये हुए क्रमसे सर्वत्र एक समय के लिये ही जघन्य प्रदेशसंचय होता है । ओघसे अजघन्य विभक्तिका काल भव्य की अपेक्षा अनादि-सान्त है और अभव्यकी अपेक्षा अनादि-अनन्त है, क्योंकि अभव्यके कभी जघन्य प्रदेशविभक्ति नहीं होती । आदेशसे सब गतियोंमें अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य १. श्र०प्रतौ 'समऊणा उक्क० हिदी' इति पाठः । ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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