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________________ १८ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ __$ २२. अंतरं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि० ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्क० पदेसविहत्तीए अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक० अणंतकालं । अधवा जहण्णेण असंखेजा लोगा, गुणिदपरिणामेहिंतो पुधभूदपरिणामेसु असंखेजलोगमेत्तेसु जहण्णण संचरणकालस्स असंखे लोगपमाणत्तादो। अणुक्क० जहण्णुक्क० एगसमओ। आदेसेण जेरइएसु मोह० उक० णत्थि अंतरं । अणुक० जहण्णुक० एगस० । एवं सत्तमाए । पढमादि जाव छहि ति मोह० उकस्साणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-सव्वदेवे त्ति । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। ६२२. अन्तर दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है। अथवा जघन्य अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है, क्योंकि गुणितकाशके कारणभूत परिणामोंसे भिन्न परिणामोंमें संचरण करनेका जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्टविभक्तिको जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। आदेशसे नारकियोंमें मोहकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसी प्रकार सातवें नरकमें जानना चाहिये । पहलेसे लेकर छठे नरक तक मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्ति का अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सब तिर्यश्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये। विशेषार्थ-ओघसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है, क्योंकि उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति गुणितकर्माशिक जीवके होती है और एक बार उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होकर पुनः इसे प्राप्त करने में अनन्तकाल लगता है। अथवा उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल असंख्यात लोक है। कारणका निर्देश मूलमें किया ही है। और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है यह स्पष्ट ही है। तथा उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल एक समय है, अतः अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है, क्योंकि अनुत्कृष्ट विभक्तिके बीचमें एक समयके लिये उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके हो जानेसे एक समयका अन्तर पड़ता है। आदेशसे सामान्य नारकियोंमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर नहीं है, क्योंकि अन्तर तब हो सकता है जब उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके बाद अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होकर पुनः उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति हो, किन्तु ऐसा किसी भी गतिमें नहीं होता, क्योंकि उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरको प्राप्त करनेके लिये विविध गतियोंका आश्रय लेना पड़ता है । अतः किसी भी गतिमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। सामान्य नारकियोंमें अनुत्कष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है, क्योंकि सातवें नरकमें अन्तिम अन्तर्मुहूर्तके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति मानी गई है। किन्तु जिनके मतसे अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है उसके अनुसार यह अन्तर नहीं बनता। इसी प्रकार सातवें नरकमें समझना चाहिये। पहलीसे लेकर छठी पृथिवी तक तथा तियञ्च, मनुष्य और देवोंमें सर्वप्रथम जन्म लेनेवाले गुणितकांश जीवके जन्म लेनेके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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