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________________ ३५० जयधवलासहिदे फसायपाहुडे [पदेसविहत्ती दोफालिस्खवगजोगादो असंखेजगुणं जोग पत्तो त्ति । एवं ताव णेदव्चो जाव संखेजपरियट्टणवारेहि अद्धजोगं पत्तो त्ति । पुणो तत्थ चरिमसमयसवेदे दपक्खेउत्तराद्धजोगेण रूऊणधापवत्तभागहारेणोवट्टिदअद्धजोगपक्खेवभागहारं तिरूवाहियमेत्तं हेट्ठा ओदारिय द्विदजोगण दुचरिमसमयसवेदे बंधाविदे एगफालिसामिणो उकस्सट्ठाणादो हेडिमासेसट्ठाणंतरेसु दुचरिमफालिट्ठाणाणं विदियपरिवाडीए पदेससंतकम्मट्ठाणाणि उप्पण्णाणि । ___६३९४. संपहि इममेत्येव दृविय एगफालिक्खवगो पुणरवि वड्ढावेदव्वो जाव उक्कस्सजोग पत्तो त्ति । पुणो दोफालिक्खवगमद्धजोग णेदूण दृविय पुणो अण्णेगण सवेददचरिमसमए अद्धजोगण चरिमसमए उकस्सजोगण बंधिय तिगिफालीसु दरिदासु एदं द्वाणं पव्विल्लट्ठाणादो विसेसाहियं, चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालोणमहियत्तुवलंभादो । पबिल्लट्ठाणेण समीकरणहं रूवूणधापवत्तभागहारेणोपट्टिदचडिदद्धाणमेत्तं पुणरवि एगफालिक्खवगो ओदारेदव्यो । एवमोदारिय पुणो दोफालिक्खवगो रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तमोदारिय पुणो दुपक्खेउत्तरजोगं णेदव्यो । एवं णीदे पुणरुत्तट्ठाणं होदि, णियत्ताविदट्ठाणेण समाणत्तादो। एदमेत्थेव दृविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण वड्डावेदव्यो जावुकस्सजोगहाणं पत्तो ति । एवं तिण्णिफालिसामिणो उक्स्सहाणादो हेट्ठा तिरूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालियोगके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार संख्यात परिवर्तन बारोंके द्वारा अर्धयोगके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । पुनः वहाँ पर सवेद भागके चरम समयमें एक कम अधःप्रवृत्त भागहाररूप दो प्रक्षेप अधिक अध योगसे भाजित अर्धयोग प्रक्षेप भागहारको तीन रूप अधिक मात्र नीचे उतार कर स्थित हुए योग द्वारा सवेद भागके द्विचरम समयमें बन्ध कराने पर एक फालि स्वामीके उत्कृष्ट स्थानसे नीचेके समस्त स्थानोंके अन्तरालोंमें द्वितीय परिपाटीसे द्विचरम फालिस्थानोंके प्रदेशसत्कर्मस्थान उत्पन्न हुए। ६३९४. अब इसे यहीं पर स्थापित कर उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक एक फालि क्षपकको फिर भी बढ़ाना चाहिए । पुनः दो फालि क्षपकको अर्ध योगको प्राप्त करा कर स्थापित करके पुनः सवेद भागके द्विचरम समयमें अन्य एक अर्ध योगके द्वारा और चरम समयमें उत्कृष्ट योगके द्वारा बन्ध करके तीन फालियोंके दारित होने पर यह स्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए स्थानमात्र द्विचरम फालियाँ अधिक पाई जाती हैं। पहलेके स्थानके साथ समीमरण करनेके लिए एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे गये हुए अधधानमात्र एक फालिक्षपकको फिर भी उतारना चाहिए। इस प्रकार उतार कर पुनः दो फालि क्षपकको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र उतारकर पुनः दो प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराना चाहिए । इसप्रकार प्राप्त कराने पर पुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि यह निवृत्त कराये गये स्थानके समान है। इसे यहों पर स्थापित करके पुनः एक फालि क्ष पकको उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए । इसप्रकार तीन फालियोंके स्वामीके उत्कृष्ट योगसे नीचे तीन रूप कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र चरम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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