SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५१ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं हाणंतराणि मोसूण सेसासेसट्ठाणंतरेसु विदियपरिवाडीए दुचरिमफालिट्ठाणाणि समुप्पण्णाणि । एवमुवरि छद्दसादिफालिक्खवगे अस्सिदृण विदियपरिवाडीए दुचरिमफालिट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि । णवरि दुसमयूणदोआवलियमेत्तसममपबद्धाणमुकस्सहाणादो हेट्ठा तिरूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालिट्ठाणंतरेसु ण उप्पण्णाणि, तिभागूण-चदुब्भागूणादिजोगहाणेसु हविय अणंतरादीदहाणेण संधाणक्कम्मो जाणिय कायव्वो। पुव्विल दुचरिमफालिहाणेहितो विदियपरिवाडीए समुप्पण्णट्ठाणाणि समाणाणि, हेहदो ऊणेगट्ठाणस्स उवरिमेगहाणपवेसदसणादो । एदमत्थपदमुवरि भण्णमाणतदियादिपरिवाडीसु सव्वत्थ वत्तव्वं । एवं दुचरिमफालिढाणाणं विदियपरिवाडी समत्ता। ३९५. संपहि तीहि दुचरिमफालीहि अधियहाणाणं परूवणं कस्सामो । तं जहा—सवेदचरिम-दुचरिमसमएसु घोलमाणजहण्णजोगण बंधिय पुणो अधियारदुचरिमसमयम्मि हिदस्स तिण्णिफालीओ जहण्णजोगादो सादिरेयदुगुणमेत्तमद्धाणं गंतूण हिदएगफालिक्खवगजोगेण सरिसाओ होति त्ति पुणरुत्तमिदं द्वाणं । संपहि एगफालिक्खवगं घोलमाणजहण्णजोगम्मि दृविय दोफालिक्खवग तिपक्खेउत्तरजोग णोदे दुचरिमफालिहाणाणं तदियपरिवाडीए पढममपुणरुत्तट्ठाणं । पुणो एदमेत्येव द्वविय एगफालिखवगो पक्खेउत्तरकमेण वढावेदव्वो जाव जहण्णजोगट्ठाणादो असंखेजगुणं फालिस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त स्थानोंके अन्तरालोंमें द्वितीय परिपाटीसे द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न हुए। इस प्रकार ऊपर छह और दस आदि फालिक्षपकोंका आश्रय लेकर द्वितीय परिपाटीसे द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न करने चाहिए । इतनी विशेषता है कि दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट स्थानसे नीचे तीन रूप कम अधःप्रवृत्त भागहार मात्र चरम फालिस्थानोंके अन्तरालोंमें नहीं उत्पन्न हुए, अतः तीन भाग कम और चार भाग कम आदि योगस्थानोंमें स्थापित कर अनन्तर अतीत स्थानके साथ सन्धानका क्रम जानकर करना चाहिए। पहलेके द्विचरम फालिस्थानोंसे द्वितीय परिपाटीके अनुसार उत्पन्न हुए स्थान समान हैं, क्योंकि नीचेसे कम एक स्थानका उपरिम एक स्थानमें प्रवेश देखा जाता है। यह अर्थपद ऊपर कही जानेवाली तृतीय ओदि परिपाटियोंमें सर्वत्र कहना चाहिए। इस प्रकार द्विचरम फालिस्थानोंकी द्वितीय परिपाटी समाप्त हुई। ६३९५. अब तीन द्विचरम फालियोंके आश्रयसे अधिक स्थानोंका कथन करते हैं। यथासवेद भागके चरम और द्विचरम समयोंमें घोलमान जघन्य योगसे बन्ध करके पुनः अधिकृत द्विचरम समयमें स्थित हुए जीवके तीन फालियाँ जघन्य योगसे साधिक दूनामात्र अध्वान जाकर स्थित एक फालिक्षपकस्थानके समान होती हैं, इसलिए यह स्थान पुनरुक्त है। अब एक फालिक्षपकको घोलमान जघन्य योगमें स्थापित करके दो फालिक्षपकको तीन प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर विचरम फालिस्थानोंका तृतीय परिपाटीके अनुसार प्रथम अपुनरुक्त स्थान होता है। पुनः इसे यहीं पर स्थापित करके एक फालिक्षपकको जघन्य योगस्थानसे असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक एक-एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए । इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy