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________________ गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं $ १४. सामित्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उ कस्सए पयदं । दुविहो णिओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्कस्सिया पदेसविहत्ती कस्स? जो जीवोबादरपुढविकाइएसु वेहि सागरोवमसहस्सेहि सादिरेएहि ऊणियं कम्महिदिमच्छिदाउओ० एवं वेयणाए वुत्तविहाणेण संसरिदूण अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु तेत्तीसंसागरोवमाउहिदीए सु उववण्णो ? तदो उव्वट्टिदसमाणो पंचिंदिएसु अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो तेत्तीससागरोवमाउहिदिएसु णेरइएसु उववण्णो । पुणो तत्थ अपच्छिमतेत्तीससागरोवमाउणिरयभवग्गहणअंतोमुहुत्तचरिमसमए वट्टमाणस्स मोहणीयस्स उकस्सपदेसविहत्ती । एत्थ उवसंहारस्स वेदणाभंगो। ये दो ही विकल्प सम्भव हैं। जघन्य प्रदेशसत्कर्म तो क्षय होनेके अन्तिम समयमें होता है । इसलिये उसमें सादि और अध्रुव ये दो ही विकल्प सम्भव हैं यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार उत्कृष्ट और उसके पश्चात् होनेवाला अनुत्कृष्ट भी कादाचित्क है, इसलिये इनमें भी सादि और अध्रुव ये दो विकल्प ही सम्भव हैं। यह तो ओघसे विचार हुआ। आदेशसे विचार करने पर चारों गतियाँ अलग-अलग जीवोंको अपेक्षा कादाचित्क हैं, इसलिए इनमें उत्कृष्ट आदि चारों पद सादि और अध्रव होते हैं । अन्य मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषता जानकर उत्कृष्ट आदिके सादि आदि पदोंकी योजना कर लेनी चाहिये। १४. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो जीव बादर पृथिवीकायिकोंमें कुछ अधिक दो हजार सागर कम कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा । इस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें कहे गये विधानके अनुसार भ्रमण करके नीचे सातवीं पृथिवीके तेतीस सागरकी आयुवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। उसके बाद वहाँसे निकल कर पञ्चेन्द्रियोंमें अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर पुनः तेतीस सागरकी स्थितिवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार तेतीस सागरकी आयुवाले नरकम अन्तिम भव ग्रहण करके उस भवके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें वर्तमान होता है तो उसके चरिम समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यहाँ उपसंहार वेदनाअनुयोगद्वारके समान जानना चाहिये। विशेषार्थ-उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिका स्वामी वही जीव हो सकता है जिसके अधिकसे अधिक कर्मप्रदेशोंका संचय हो। ऐसा संचय जिस जीवको हो सकता है उसीका कथन यहाँ किया गया है। खुलासा इस प्रकार है-जो जीव बादर पृथिवीकायिकोंमें त्रस पर्यायकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक दो हजार सागर कम कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा। वहाँ रहते हुए बहुत बार पर्याप्त हुआ और थोड़ी बार अपर्याप्त हुआ। तथा जब पर्याप्त हुआ तो दीर्घायुवाला ही हुआ और जब अपर्याप्त हुआ तो अल्पायुवाला ही हुआ। ये दोनों बातें बतलानेका कारण यह है कि अपर्याप्तके योगसे पर्याप्तका योग असंख्यातगुणा होता है और योगके असंख्यातगुणा होनेसे पर्याप्तके बहुत प्रदेशबंध होता है। तथा जब जब आयुबंध किया तब तब उसके योग्य जघन्य योगसे किया, जिससे मोहनीयके लिये अधिक द्रव्यका संचय हो सके । तथा बारम्बार उत्कृष्ट योगस्थान हुआ और बारम्बार विशेष संक्लिष्ट परिणाम हुए। इस प्रकार बादर पृथिवीकायिकोंमें भ्रमण करके बादर त्रस पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। यद्यपि स्थावर पर्यायका निषेध कर देने से ही सूक्ष्मत्वका निषेध हो जाता है क्योंकि स्थावर पर्यायके सिवा अन्यत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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