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________________ २१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ चरिमसमयगुणसंकमभागहारेण वेछावट्ठिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा च ओवट्टिदे उवरिमदव्वमागच्छदि । पुणो अवसेसंतोकोडाकोडिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिका रूवूणेण दिवड्डगुणहाणिगुणिदेणोवट्टिदे चरिमणिसेगो आगच्छदि । पुणो एदेसु भागहारेसु पढमुव्वेल्लणखंडयचरिमफालीए ओवट्टिदेसु चरिमफालिमत्ता चरिमणिसेया आगच्छति' । पुणो किंचूर्ण कादूण विहजमाणदव्वे ओवट्टिदे पढमुवेल्लणखंडयचरिमफालिदव्वं होदि। पुणो उब्वेल्लणणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा तम्मि ओवट्टिदे पढमुव्वेल्लणखंडयचरिमफालिदव्वमस्सिय पयदगोवुच्छादो उवरि णिवदिददव्वं होदि। तम्मि दिवगुणहाणीए ओवट्टिदे अहियारहिदीए विगिदिगोवुच्छा होदि । ६ १९८. संपहि विदियउव्वेल्लणखंडयचरिमफालीए एत्तो उवरि अंतोमुहुत्तं चडिदूण द्विदाए णिवदमाणाए जा विगिदिगोवुच्छा तिस्से पमाणाणुगमं कस्सामो । पुव्वं हविदभज-भागहारसव्वरासीणं विण्णासं करिय दुगुणचरिमफालीए सादिरेगाए पुव्वभागहारेसु ओवट्टिदेसु तदित्थविगिदिगोवुच्छाए पमाणं होदि । एवमेदेण विहाणेण असंखेजुव्वेल्लणखंडएसु णिवदिदेसु उपरि एगगुणहाणिमेत्तहिदी परिहायदि । ताधे उव्वेल्लणकालो वि गुणहाणीए असंखे०भागमेत्तो अइक्कमइ, एगुव्वेल्लणखंडयस्स अन्तिम समयवर्ती गुणसंक्रमभागहार और दो छयासठ सागरकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन सबका भाग देने पर उपरिम द्रव्यका प्रमाण आता है। फिर इस द्रव्यमें शेष बची अन्तःकोडाकोडीकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्तराशिको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करके प्राप्त हुई राशिका भाग देनेपर अन्तिम निषेकका प्रमाण आता है। फिर इन भागहारोंको प्रथम उद्वेलनाकाण्डकको अन्तिम फालिसे भाजित कर देने पर अन्तिम फालिप्रमाण अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं। फिर अन्तिम फालिको कुछ कम करके उसका भज्यमान द्रव्यमें भाग देने पर प्रथम उद्वेलनाकाण्डकको अन्तिम फालिका द्रव्य प्राप्त होता है। फिर इसे उद्वलनाकी नाना गणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग देने पर प्रथम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके द्रव्यका आश्रय लेकर प्रकृत गोपुच्छासे ऊपर पतित हुए द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अब इसमें डेढ़ गुणहानिका भाग देने पर अधिकृत स्थितिमें विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है। ६ १९८ अब इससे आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर जो दूसरे उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालि स्थित है उसका पतन होने पर जो विकृतिगोपुच्छा बनती है उसके प्रमाणका विचार करते हैं-पहले भाज्य और भागहारकी सब राशियोंकी जिस प्रकार स्थापना कर आये हैं उन्हें उसी प्रकारसे रखकर अनन्तर पहले स्थापित किये हुए भागहारोंमें साधिक दूनी की हुई अन्तिम फालिका भाग दो तो वहाँ की विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण होता है। इस प्रकार इस विधिसे असंख्यात उद्वलनाकाण्डकोंका पतन होनेपर ऊपरकी एक गुणहानिप्रमाण स्थितियोंकी हानि होती है। और तब उदलनाका काल भी गुणहानिके असंख्यातवें भागप्रमाण व्यतीत हो जाता है, क्योंकि एक उद्वलनाकाण्डकके पतनमें यदि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कीरणा काल प्राप्त ... १. तापा०प्रत्योः 'आगच्छदि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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