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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २११ जदि अंतोमुहुत्तमेत्ता उक्कीरणद्धा लब्भदि तो एगगुणहाणिमेत्तहिदीए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए उक्कीरणद्धोवट्टिदुव्वेल्लणखंडयचरिमफालीए ओवट्टिदगुणहाणिमेत्तकालुवलंभादो। ६ १९९. संपहि एत्थतणविगिदिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहादिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपबद्धे अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारेण वेछावट्ठिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा उवरिमअंतोकोडाकोडिअभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा च भागे हिदे चरिमगुणहाणिदव्यमागच्छदि। पुणो एदम्मि दीहुव्वेल्लणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थराप्तिणोवट्टिदे पयदणिसेगादो उवरि णिवदमाणदव्वं होदि । पुण तम्मि दिवसगुणहाणीए ओवट्टिदे एत्थतणविगिदिगोवुच्छा आगच्छदि ।। २००. संपहि एत्तो उवरि अंतोमुहुत्तमेत्तउकीरणकालं चडिदूण अण्णमेगं द्विदिखंडयं णिवददि । तत्तो समुप्पण्णविगिदिगोवुच्छापमाणे आणिजमाणे पुव्विल्लविगिदिगोवुच्छाणयणे ठविदभज-भागहारा ठवेदव्वा । णवरि उवरिमअंतोकोडाकोडिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासीए दिवड्डगुणहाणिगुणिदाए पढमहिदिखंडयदुगुणचरिमफालीए अब्भहियदिवड्गुणहाणिभागहारो ठवेदव्यो। किमटुं पढमगुणहाणिहोता है तो एक गुणहानिप्रमाण स्थितियोंके पतनमें कितना काल लगेगा इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर उत्कीरणाकालसे उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिको भाजित करके जो प्राप्त हो उसका एक गुणहानिप्रमाण स्थितियोंमें भाग देनेसे एक गुणहानिप्रमाण स्थितियोंके पतनमें लगनेवाला उद्वेलनाकाल प्राप्त होता है। १९९. अब यहाँकी विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं । वह इस प्रकार है-डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्धमें अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, कुछ कम अन्तिम समयवर्ती गुणसंक्रमभागहार, दो छयासठ सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और उपरिम अन्तः कोड़ाकोड़ीके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि इन सबका भाग देने पर अन्तिम गुणहानिका द्रव्य आता है। फिर उसमें सबसे बड़े उद्वेलना कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका भाग देने पर प्रकृत निषेकसे ऊपर प्राप्त हुए द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर उसमें डेढ़ गुणहानिका भाग देने पर यहांको विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है। ६२००. अब इसके ऊपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कीरण काल जाकर एक दूसरे स्थितिकाण्डकका पतन होता है । अब इस स्थितिकाण्डकके पतनसे उत्पन्न हुई विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण लाने पर, पूर्वोक्त विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण प्राप्त करनेके लिये जिन भाज्य और भागहारोंको स्थापित कर आये हैं उन्हें उसी प्रकार स्थापित करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि डेढ़ गुणहानिसे गुणित उपरिम अन्तःकोड़ाकोड़ीकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिके भागहाररूपसे प्रथम स्थितिकाण्डककी दूनी अन्तिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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