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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १८९ कथं समयूणावलियमेत्तपगदिगोवुच्छाणंचे व जहण्णत्तं ? ण ओकड्डकड्डणवसेण तत्थतणकम्मखंधे हेडुवरि संकंतेसु तासिं जहण्णत्तं पडि विरोहाभावादो । तत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा — जो गुणिदकम्मंसिओ सष्णिपंचिंदिएसु एइंदिएस च अंतोमुहुत्तकालमंतरिय मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ अंतोमुहुत्तन्भहिय अट्ठवस्सेसु गदेसु उकस्सअपुण्वपरिणामेहि दंसणमोहणीयं खविय समयूणावलियमेत्तगोबुच्छाओ धरेण द्विदो सव्वपच्छिम वियप्पो, एत्तो उवरि वड्डीए अभावादो । $ १७८. संपहि जो खविदकम्मंसिओ सम्मत्तेण सह भमिदवेछावद्विसागरोवमो मिच्छत्तचरिमफालिं धरेण हिदो तस्स दव्वं पुल्लिसम यूणावलियम तगोवुच्छाणसव्वादो असंखेजगुणं । तदसंखेज्जगुणत्तं कुदो णव्वदे ? जुत्तीदो । तं जहासमयूणावलियमेत्तउक्कस्सपयडिगोवच्छाहिंतो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावडीओ भमिय मिच्छत्त चरिमफालिं धरेदूण द्विदखवगस्स पयडिगोवच्छाओ असंखेजगुणाओ, जोगगुणगारादो अंतोमुडुत्तोवदिओकड्ड कड्डणभागहारपदुप्पण्णवेछावट्ठिअण्णोण्णव्भत्थरासिणोव विदचरिमफालिआयामस्स असंखेञ्जगुणत्तादो | बिगिदिगोच्छा हिंतो विचरिमफालीए विगिदिगोवुच्छाओ असंखेञ्जगुणाओ । कारणं पुब्बं व परूवेदव्य' । समयूणावलियम तअपुच्व-अणियट्टिगुण सेडिगोवच्छाहिंतो चरिमआवलिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाएँ जघन्य क्यों रहती हैं ? तत्थतण समाधान — नहीं, क्योंकि अपकर्षण- उत्कर्षण के निमित्तसे वहाँके कर्मस्कन्धोंके नीचे और ऊपर संक्रान्त होने पर उनके जघन्य होने में कोई विरोध नहीं आता। अब वहां सबसे अन्तिम विकल्पको कहते हैं । वह इस प्रकार है- जो गुणितकर्मा शवाला जीव संज्ञी पञ्चेन्द्रियों और एकेन्द्रियों में अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और वहां अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बीतने पर उत्कृष्ट अपूर्वकरणरूप परिणामोंके द्वारा दर्शनमोहनीयका क्षय करके एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित हुआ उसके सबसे अन्तिम विकल्प होता है, क्योंकि इसके द्रव्यके ऊपर वृद्धिका अभाव है । ९ १७८. अब जो क्षपितकर्मा शवाला जीव सम्यक्त्वके साथ दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है उसका द्रव्य पूर्वोक्त एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंके उत्कृष्ट द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । शंका- किण प्रमाणसे जाना कि वह असंख्यातगुणा है ? समाधान-युक्तिसे जाना । वह युक्ति इस प्रकार है- क्षपितकर्मा शके लक्षणके साथ आकर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करनेवाले क्षपककी प्रकृतिगोपुच्छाएँ एक समय कम आवलिप्रमाण उत्कृष्ट प्रकृतिगोपुच्छाओंसे असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त से भाजित अपकर्षण- उत्कर्षण भागहारसे गुणित दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्तराशिसे भाजित जो चरिमफालिका आयाम है वह योगके गुणकारसे असंख्यातगुणा है । तथा वहांकी विकृतिगोपुच्छाओं से भी चरमफालिकी विकृतिगोपुच्छाएँ असंख्यातगुणी हैं । कारणका पहले के ही समान कथन करना चाहिये । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी एक समय कम Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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