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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं तिभागणुकस्सजोगट्ठाणं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविदे पुग्विल्लमूणिददव्वं पक्खेवुत्तरकमेण पविहं होदि । संपहि उवरिमतिभागं पि तिचरिमसमयसवेदो वड्डाविय णेदव्वो जाव उकस्सजोगहाणं पत्तो ति । एवं णीदे तिचरिमसमयसवेदस्स चरिमफालियाए सगलजोगहाणद्धाणमेत्ताणि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि लद्धाणि, उक्कस्सजोगहाणभागहारस्स तीहि तिभागेहि सयलजोगहाणद्धाणप्तमुप्पत्तीर । एवं छष्फालीओ उकस्सभावं पीदाओ। एवं चदन्भागृणादिजोगहाणेसु समयाविरोहेण परिणमाविय ओदारदव्वं जाव अवगदवेदवढमसमओ त्ति । एवमोदारिय पणो पदेससंतकम्मट्ठाणाणं पमाणपत्रणाए कीरमाणाए सादिरेयदुसमयूणदोआवलियमेत्तो सयलजोगहाणद्धाणस्स गुणगारो पुव्वं व साहेयव्यो। $ ३७६. अहवा अण्णेण पयारेण दुसमयूणदोआवलियमेत्तगुणगारुप्पायणं कस्सामो । तं जहा-घोलमाणजहण्णजोगट्ठाणप्पहुडि पक्खेवत्तरकमेण चरिमसमयसवेदो वहाव दव्वो जाव घोलमाणजहण्णजोगट्ठाणादो सादिरेयदुगुणमेत्तं जोगहाणं पत्तो त्ति । संपहि एदेण दवण अण्णेगो सव ददचरिमसमए चरिमसमए च घोलमाणजहण्णजोगेण परिसवदं बंधिय अधियारदचरिमसमयम्मि तिण्णि फालीओ धरिय द्विदो सरिसो, घोलमाणजहण्णजोगहाणपक्खेवभागहारं रूवूणअधापवत्तभागहारेण खंडिय तत्थ एगखंडेणब्भहियतब्भागहारमेत्तमुवरि चढिय एगफालिखवगस्स अवट्ठाणुवलंभादो । पणो एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर पहलेका कम किया गया द्रव्य एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे प्रविष्ट होता है। अब त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीव उपरिम विभागको भी बढाकर उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक ले जावे। इस प्रकार ले जाने पर विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके चरम फालिके समस्त योगस्थानके अध्वानप्रमाण प्रदेशसत्कर्मस्थान लब्ध होते हैं, क्योंकि उत्कृष्ट योगस्थान भागहारके तीन विभागोंके द्वारा सकल योगस्थान अध्वानकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार छह फालियाँ उत्कृष्टपनेको ले जाई गई हैं। इस प्रकार चतुर्थ भाग कम आदि योगस्थानोंमें समयके अविरोधरूपसे परिणमा कर अपगतवेदके प्रथम समय तक उतारना चाहिए । इस प्रकार उतार कर पुनः प्रदेशसत्कर्मस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करने पर सकल योगस्थान अध्वानका गुणकार साधिक दो समय कम दो आवलिप्रमाण पहलेके समान साधना चाहिए। ६३७६. अथवा अन्य प्रकारसे दो समय कम दो आवलिप्रमाण गुणकारकी उत्पत्ति करनी चाहिए। यथा--घोलमान जघन्य योगस्थानसे लेकर एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे चरम समयवर्ती सवेदी जीवको घोलमान जघन्य योगस्थानसे साधिक दुगुने योगस्थानके • प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । अब इस द्रव्यके साथ एक अन्य जीव समान है जो सवेद भागके द्विचरम और चरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे पुरुषवेदका बन्ध कर अधिकृत द्विचरम समयमें तीन फालियोंको धारण कर स्थित है, क्योंकि घोलमान जघन्य योगस्थानके प्रक्षेप भागहारको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित कर वहाँ एक खण्डसे अधिक उसके भागहारप्रमाण ऊपर चढ़कर एक फालि क्षपकका अवस्थान उपलब्ध होता है। पुनः द्विचरम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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