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________________ १९४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अंतोमुहुत्तूणविदियछावही ओदिण्णा त्ति । संपहि तत्थ अंतोमुहुत्तमेत्तकाले अकमेण ऊणीकदे वि होदि तमम्हे एत्थ ण परूवेमो, बहुसो परूविदत्तादो । $ १८२. संपहि एत्थ समयूणादिकमेण ओयरणविहाणं उच्चदे। तं जहाचरिमसमयणेरइयो एगगोवुच्छविसेसेण एगसमयमोकड्डणपरपयडिसंकमेहि विणासिजमाणदव्वेण य ऊणमुक्कस्सं पयदगोवुच्छं करिय तत्तो णिप्पिडिय समयूणं पढमछावहिं भमिय सम्मत्तचरिमसमए सम्मामिच्छ त्तं प्रडिवजिय सम्मामिच्छत्तचरिमसमए सम्मत्तं पडिवन्जिय पुणो अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं खविय एगणिसेगं दुसमयकालडिदिं करेदण हिदो पुविल्लेण सरिसो। एवं पढमछावढि सगचरिमसमयादो एग-दोसमयादिकमेण ओदारेदव्वा जाव सम्मामिच्छत्तकालो विदियछावट्ठीए उव्वरिदसम्मामिच्छत्तक्खवणद्धपेरंतकालो च सविसेसो ओदिण्णो ति । एवमोदिण्णेण अण्णेगो पढमछावहिं भमिय सम्मामिच्छ त्तमपडिवजिय मिच्छत्तं खविय तदेगगोवच्छं दुसमयकालहिदियं पढमछावहिचरिमसमयादो अंतोमुहुत्तमोदरिय धरेदश द्विदो सरिसो । एदेण अण्णेगो एगगोवुच्छविसेसेण एगसमएण ओकड्डण-परपयडिसंकमेण विणासिजमाणदव्वेण य ऊणमुक्कस्सं पयदगोवच्छं णेरइयचरिमसमए करिय समऊणपुव्विल्लकालं परभमिय मिच्छत्तं खविय तदेगगोवुच्छं दुसमयकालहि दियं जानकर अन्तमुहूर्त कम दूसरे छयासठ सागर काल कम होने तक उतारते जाना चाहिये । वहां अन्तर्मुहूर्तकाल एक साथ कम करने पर भी समानता होती है पर उसे हमने यहां नहीं कहा है, क्योंकि उसका अनेक बार कथन कर आये हैं। १८२ अब यहांपर एक समय कम आदिके क्रमसे अवतरणविधिका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है-एक अन्तिम समयवर्ती नारकी है जिसने एक गोपुच्छविशेषसे तथा अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमणके द्वारा नष्ट होनेवाले द्रव्यसे हीन उत्कृष्ट प्रकृतगोपुच्छको किया । फिर वहांसे निकल कर एक समय कम प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण किया। फिर सम्यक्त्वके अन्तिम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वको और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त किया। फिर अन्तर्मुहूर्त तक ठहरकर मिथ्यात्वका क्षय किया। ऐसा करते हुए जब वह दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको करके स्थित होता है तो वह पहलेके जीवके समान होतो है। इस प्रकार अपने अन्तिम समयसे लेकर एक समय और दो समय आदिके क्रमसे प्रथम छयासठ सागर कालको तब तक उतारते जाना चाहिये जब तक सम्यग्मिथ्यात्वका काल और दूसरे छयासठ सागरमें शेष बचा सविशेष मिथ्यात्वका क्षपण तकका काल घट जाय । इस प्रकार उतरते हुए जीवके साथ प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके और सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुए बिना मिथ्यात्वका क्षय करके पहले छयासठ सागरसे अन्तर्मुहूर्त उतरकर दो समय कालकी स्थितिवाले मिथ्यात्वके एक गोपुच्छाको धारण करके स्थित हुआ अन्य एक जीव समान है। अब अन्य एक जीव लो जिसने एक गोपुच्छ विशेषसे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृत्ति संक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम नारकीके अन्तिम समयमें उस्कृष्ट प्रकृति गोपुच्छको किया है। फिर एक समय कम पूर्वोक्त काल तक परिभ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षय किया। वह जब दो समय कालकी स्थितिवाले मिथ्यात्वके एक निषेकको For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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