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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १९३ समयणेरइयदव्वेण सह संधिय तं मोत्तूणेदं घेत्तूण परमाणुत्तरकमण दोहि वड्डीहि वहाव दव्वं जाव अप्पणो ओघुक्कस्सदव्वं पत्तं त्ति । एवं मिच्छत्तस्स खविदकम्मंसियमस्सिदूण कालपरिहाणीए हाणपरूवणा कदा । ६ १८१. संपहि तस्सेव मिच्छत्तस्स गुणिदकम्मंसियमस्सिदूण कालपरिहाणीए ढाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेण वेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं खत्रिय दुसमयकालहिदिएगणिसेगमेत्तजहण्णदव्यं धरेदूग द्विदो परमाणुत्तरकमेण पंचवड्डीहि वड्ढावेदव्यो जाव अप्पणो उक्कस्सदव्वं पत्तो ति । एदेण अण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ' रइयचरिमसमए एगगोवुच्छविसेसेण एगसमयमोकड्डणपरपयडिसंकमेहि विणासिन्जमाणदव्वेण च ऊणमुक्कस्सदव्वं करिय पुणो तत्तो णिप्पिडिय समय णवेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं खविय एगणिसेगं दुसमयकालहिदियं धरेदूण द्विदजीवो सरिसो। संपहि इमं खवयगोवुच्छं घेत्तूण वडावेदव्वं जाव तेणूणीकददव्वं वडिदं ति । एवं वड्डिदण हिदेण अण्णेगो एगगोवुच्छविसेसेण एगसमयमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि विणासिददव्वेण य ऊणुक्कस्सं पयदगोवुच्छं णेरइएसु करिय पुणो तत्तो पिग्गंतूण दुसमयूणवेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं खविय एगणिसेगं दुसमयकालहिदियं धरेमाणहिदो सरिसो । एवं जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव नारकीके द्रव्यके साथ मिलाओ और उसे छोड़ इसे लो। फिर इस पर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे दो वृद्धियों के द्वारा तब तक बढ़ाओ जब तक अपने ओघरूप उत्कृष्ट द्रव्यकी प्राप्ति हो। इस प्रकार क्षपितकर्माशको लेकर कालकी हानिके द्वारा मिथ्यात्वके स्थानोंका कथन किया। १८१. अब गुणितकर्मा शको लेकर कालकी हानिके द्वारा उसी मिथ्यात्वके स्थानोंका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है-क्षपितकाशके लक्षणके साथ दो छयासठ सागर तक भ्रमण कर और मिथ्यात्वका क्षपण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकप्रमाण जघन्य द्रव्यको धारण करके फिर उसे एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक अपना उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त हो। इस प्रकार उत्कृष्ट द्रव्यको करके स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य गुणितकर्मा शवाला नारकी अन्तिम समयमें एक गोपुच्छविशेष और एक समयमें अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा नष्ट होनेवाले द्रव्यसे होन उत्कृष्ट द्रव्यको करके फिर वहाँसे निकलकर एक समयकम दो छयासठ सागर तक भ्रमण कर मिथ्यात्वका क्षपण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकका धारक होने पर समान होता है। अब इस क्षपककी गोपुच्छको तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक उसके द्वारा कम किया हुआ द्रव्य वृद्धिको प्राप्त हो । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक गोपुच्छविशेष तथा एक समयमें अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा नष्ट होनेवाले द्रव्यसे हीन उत्कृष्ट प्रकृतिगोपुच्छको नारकियोंमें करके फिर वहाँसे निकलकर दो समय कम दो छयासठ सागर तक भ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षय करके दो समय काल स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुआ एक अन्य जीव समान है। इस प्रकार १. आ० प्रती 'अण्णण गुणिदकम्मंसिनो' इति पाठः। २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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