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________________ १६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ $ १५७. एसो उक्क सविसेसो जहण्णसंतकम्मादो थोवो चि जाणावणढमुत्तर सुतं भणदि * तस्स पुणे जहरणयस्स संतकम्मस्स संभागो । $ १५८. एसो एगहिदिविसेसदिउकस्सविसेसो असंखेजसमयपबद्ध मेतो होतो वि जहण्णसंतकम्मस्स असंखे० भागमेत्तो । तं जहा – एयं पयडिगोपुच्छ अण्णेगं विगि दिगो पुच्छम पुथ्वगुणसे डिगोपुच्छमणिय ट्टिगुणसेडिगोपुच्छ च घेसूण जहण्णदव्वं है उसमें अपकर्षण और उत्कर्षणके कारण एक समयप्रबद्धप्रमाण प्रदेशों तक वृद्धि क्षपितकर्माशिक के ही देखी जाती है । इसके आगे गुणितकर्माशके उसी स्थिति के रहते हुए एक एक परमाणुकी वृद्धि होने लगती है और इस प्रकार वृद्धिको प्राप्त हुए कुल परमाणुओंका जोड़ असंख्यात समयप्रत्रद्धप्रमाण होता है । मतलब यह है कि दो समयवाली एक स्थितिके जघन्य सत्कर्मस्थान से उत्कृष्ट सत्कर्मस्थान में असंख्यात समयप्रबद्धोंका अन्तर रहता है और नाना जीवों की अपेक्षा इतने स्थान पाये जाना सम्भव है । इनमें से एकसमयप्रबद्धप्रमाण वृद्धि होने तकके स्थान क्षपितकर्मांशके पाये जाते हैं और आगे के सब स्थान गुणितकर्माशके ही पाये जाते हैं । बात यह है कि चाहे क्षपितकर्माश जीव हो या गुणितकर्माश उनमें से प्रत्येकके दो समय कालबाली एक स्थितिमें चार गोपुच्छाएं पाई जाती हैं- प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा, अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा और अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा । इनमें से दोनों के अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छाएं तो समान होती हैं; क्योंकि अनिवृत्तिकरणमें दोनों के एकसे परिणाम होते हैं । अब रहीं शेष गोपुच्छाएं सो उनमें क्षपितकर्मा शकी तीनों गोपुच्छाओं से गुणितकर्मा की तीनों गोपुच्छाएँ असंख्यातगुणी होती हैं। इससे ज्ञात होता है कि जघन्य सत्कर्मस्थानसे उत्कृष्टगत विशेष असंख्यात समयप्रबद्ध अधिक पाया जाता है । यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि क्षपितकर्माश और गुणितकर्माश इन दोनोंके अनिवृत्तिकरण की गुणश्रेणीगोपुच्छा तो समान होती है, इसलिये इसके कारण तो क्षपितकर्मा से गुणितकर्माशके असंख्यात समयबद्ध अधिक सत्त्व पाया नहीं जा सकता। अब यदि प्रकृतिगोपुच्छाकी अपेक्षा विचार करते हैं तो यद्यपि क्षपितकर्मा शकी प्रकृतिगोपुच्छासे गुणितकर्मा की प्रकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी होती है तो भी गुणितकर्मा' शकी प्रकृतिगोपुच्छा एक समयप्रबद्ध के असंख्यातवें भागप्रमाण हो पाई जाती है, इसलिये इसकी अपेक्षा भी क्षपितकर्माशसे गुणितकर्मा शके असंख्यात समयप्रबद्ध अधिक सत्त्व नहीं पाया जा सकता । अब रही शेष दोगोपुच्छाएं सो इनकी अपेक्षा ही यह वृद्धि सम्भव है और इसी अपेक्षासे प्रकृत में क्षपितकर्मा शके जघन्य द्रव्यसे गुणितकर्मा शका उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यात समयप्रबद्ध अधिक कहा है । $ १५७ यह उत्कृष्ट विशेष जघन्य सत्कर्म से थोड़ा है यह बतलाने के लिये आगे का सूत्र कहते हैं किन्तु यह उत्कृष्ट द्रव्यका विशेष उस जघन्य सत्कर्मके असंख्यातवें भागप्रमाण है । १५८ एक स्थिति विशेष में स्थित यह उत्कृष्ट विशेष असंख्यात समयप्रवद्धप्रमाण होता हुआ भी जघन्य सत्कर्मके असंख्यातवें भागमात्र है । उसका खुलासा इस प्रकार हैएक प्रकृतिगोच्छा, एक विकृतिगोपुच्छा, अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रोणिकी गोपुच्छा और अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको लेकर जघन्य द्रव्य होता है। इन चारों गोपुच्छाओं में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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