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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सम्भव है तथापि उसमें नपुंसकवेदका बन्धकाल शेष दोनों वेदोंके बन्धकालसे संख्यात गुणा है। ऐसी स्थितिमें इन दोनों कालोंमें नपुंसकवेदके संचित हुए समयप्रवद्धोंका प्रमाण कितना है यह इस प्रकरणमें बतलाया गया है। जिसका खुलासा इस प्रकार है-कर्मस्थितिकाल के अन्दर तीनों वेदोंके संचित द्रव्यका प्रमाण डेढ़ गुणहानिमात्र है। यहां डेढ़ गुणहानिसे डेड गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध लेना चाहिये और वह काल सबन्धक और स्थावरबन्धक दोनोंका है, अतः कर्मस्थितिकालका भाग डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धमें देकर जो लब्ध आये उसे स्थावर बन्धककालसे गुणा करने पर स्थावर बन्धककालमें संचित वेदके द्रव्यका प्रमाण होता है। यह सब केवल नपुंसकवेदका ही है। अब रहा त्रसबन्धक काळमें संचित वेदोंका द्रव्य । चूंकि वह द्रव्य तीनों वेदोंका है, अतः उसमेंसे काल प्रतिभागके अनुसार नपुंसकवेदका द्रव्य निकाल लेना चाहिये। उस द्रव्यको स्थावर बन्धककालके द्रव्यमें मिला देनेसे नपुंसकवेदका संचित द्रव्य होता है। यहाँ पर यह शंका होती है कि त्रसबन्धककालमेंसे नपुंसकवेदके द्रव्यके संचयके लिये केवल नपुंसकवेद बन्धककाल ही क्यों लिया है, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्धककाल भी ले लेना चाहिये जिससे नपुंसक वेदके संचयके लिये पूरा कर्मस्थितिप्रमाण काल प्राप्त हो जाय, क्यों कि पुरुषवेद और स्त्रीवेद बन्धककालके भीतर भी संक्रमणद्वारा नपुंसकवेदका संचय सम्भव है ? इस पर वीरसेन मीने यह समाधान किया कि जब नपंसकवेदका बन्ध रुक जाता है तब स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धकालमें कषायोंका द्रव्य नपुंसकवेदरूपसे संक्रमित नहीं होता। इसकी पुष्टिमें प्रमाणरूपसे वीरसेनस्वामीने 'बंधे उक्कडुदि' यह गाथांश प्रस्तुत किया है। इसका भाव यह है कि बन्धके समय ही उत्कर्षण होता है। यद्यपि यहां प्रकरण संक्रमणका है उत्कर्षणका नहीं। तब भी संक्रमण चार प्रकारका है-प्रकृतिसंक्रमण, स्थितिसंक्रमण, अनुभागसंक्रमण और प्रदेशसंक्रमण । इनमेंसे स्थितिसंक्रमण और अनुभागसंक्रमणके ही अपर नाम उत्कर्षण और अपकर्षण हैं। सम्भवतः इस परसे वीरसेनस्वामीने यह निष्कर्ष निकाला कि उत्कर्षणके लिये जो नियम है, वही प्रकृतिसंक्रमण और प्रदेशसंक्रमके लिये भी नियम है, अतः 'बंधे उक्कडुदि' यह गाथांश देशामर्षक होनेसे इस द्वारा प्रकृति और प्रदेशसंक्रमणका भी समर्थन हो जाता है। इसपर फिर यह शंका हुई कि संक्रमणके लिये यह कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है कि बन्धके समय ही उसमें अन्य सजातीय प्रकृतिका संक्रमण हो, क्योंकि बन्धके अतिरिक्त समयमें भी उसमें अन्य सजातीय प्रकृतिका संक्रमण देखा जाता है। यथा नपुंसकवेदका बन्ध पहले गुणस्थानमें ही होता है तब भी जो जीव नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ता है उसके वहां नपुंसकत्रेदमें स्त्रीवेदका संक्रमण होता है ? इस शंकाका वीरसेनस्वामीने जो समाधान किया उसका भाव यह है कि संसारी जीवोंके आम व्यवस्था यह है कि उत्कर्षणके समान बन्धके अभावमें संक्रमण भी नहीं होता है, क्योंकि संक्रमणके कारणभूत संक्लिष्ट परिणामोंसे जो संक्रमण होता है वह बंधनेवाली प्रकृतिमें ही अन्य सजातीय प्रकृतिका होता है। उसमें ही बदल कर पड़नेवाले अन्य प्रकृतिके परमाणुभोंको ग्रहण करने की योग्यता पाई जाती है। दूसरे यहां संक्रमित होनेवाले द्रव्यकी प्रधानता नहीं है किन्तु बंधनेवाले द्रव्यकी प्रधानता है। यहां संक्रमित द्रव्यको प्रधानता इसलिये नहीं है, क्योंकि इसका आय और व्यय समान है। इससे स्पष्ट है कि त्रसस्थितिमेंसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धककालको छोड़कर अन्यत्र ही नपुंसकवेदके द्रव्यका संचय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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