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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए एगजीवेण सामित्तं । ६ ७२. संपहि एत्थ उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागो सव्वपदेसविहत्ती णोसव्वपदेसविहत्ती उकस्सपदेसवि० अणुकस्सपदेसवि० जहण्णपदेसवि० अजहण्णपदेसवि० सादियपदेसवि० अणादियपदेसवि० धुवपदेसवि० अद्धृवपदेसवि० एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं सण्णियासो भावो अप्पाबहुअं चेदि तेवीस अणियोगद्दाराणि । पुणो भुजगारो पदणिक्खेवो वड्डी टाणाणि त्ति अण्णाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि । एत्थ आदिल्लाणि एक्कारस अणियोगद्दाराणि मोत्तण पढम सामित्ताणिओगद्दारं चैव किमट्ठ परूविदं ? ण, तेसिमेकारसण्हमेत्थेववलंभादो। ६ ७३. संपहि एदेण सामित्तसुत्तेण सूचिदाणमेकारसहमणिओगद्दाराणं ताव परूवणं कस्सामो । तं जहा-एत्थ भागाभागो दुविहो-जीवभागाभागरे पदेसभागाभागो चेदि । तत्थ जीवभागाभागमुवरि कस्सामो, णाणाजीवविसयस्स तस्स एगजीवेण सामित्तादिसु अपरू विदेसु परूवणोवायाभावादो। तदो थप्पमेदं कादण उत्तरपयडिपदेसभागाभागं ताव वत्तइस्सामो, तस्स सव्वाणियोगद्दाराणं जोणीभूदस्स पुव्वपरूवणाजोगत्तादो । तं जहा–उत्तरपयडिपदेसभागा० दुविहो-जह० उक्क । उक० पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । तत्थ ओघेण मोह० सव्वपदेसपिंडं गुणिदकम्मंसिय 8 उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्तिमें एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वको कहते हैं। ६७२. अब यहाँ उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्तिमें भागाभाग, सर्वप्रदेशविभक्ति, नोसर्वप्रदेशविभक्ति, उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति, जघन्य प्रदेशविभक्ति, अजघन्य प्रदेशविभक्ति, सादि प्रदेशविभक्ति, अनादि प्रदेशविभक्ति, ध्रुव प्रदेशविभक्ति, अध्रुव प्रदेशविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, भाव, और अल्पबहुत्व ये तेईस अनुयोगद्वार होते हैं। इनके सिवा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ये चार अनुयोगद्वार और होते हैं। शंका-यहाँ आदिके ग्यारह अनुयोगद्वारोंको छोड़कर पहले स्वामित्वानुयोगद्वार हो क्यों कहा ? समाधान नहीं, क्योंकि वे ग्यारह अनुयोगद्वार इसी स्वामित्वानुयोगद्वारमें गर्भित पाये जाते हैं, इसलिए पहले स्वामित्वानुयोगद्वारका ही कथन किया है। ६७३. अब इस स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्रसे सूचित होनेवाले ग्यारह अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है-यहाँ भागाभाग दो प्रकारका है-जीव भागाभाग और प्रदेशभागाभाग। उनमें जीव भागाभागको आगे कहेंगे, क्योंकि जीव भागाभाग नाना जीवविषयक है, अतः एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व आदिका कथन किये बिना उसके कथन करनेका कोई उपाय नहीं है। अतः उसे रोककर उत्तरप्रकृतिप्रदेशविषयक भागाभागको कहते हैं, क्योंकि वह सब अनियोगद्वारोंका उत्पत्तिस्थान होनेसे पहले कहे जानेके योग्य है। उसका कथन इसप्रकार है-उत्तरप्रकृतिप्रदेशभागाभाग दो प्रकारका हैजघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश उनमें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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