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________________ गा० २२] उत्तरपय डिपदेसविहत्तीए सामित्तं समए सग-सगुक्कस्सप रिणामेसु चैव दुविय पुणो तदियसमओ सगजहण्णपरिणामहुड जावपणो उकस्सपरिणामो त्ति ताव णिरंतरं परिणमावेदव्वो । एवं सव्वे समया परिवाडीए संचारदव्वा जावप्पप्पणो उकस्सपरिणामं पत्ता त्ति । तत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा - खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवजिय पुणो वेदगं गंतूण तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय दंसणमोहक्खवणमाढविय सव्वुक्कस अपुव्वपरिणामेहि चेव गुणसेटिं करिय मिच्छत्तं खवेदूण आवलियकालट्ठिदीए समयूणाव लिय मे तणिसेगे धरेण द्विदो सम्वपच्छिमो । $ १७७. संपहि समयूणावलियमे त्तविगिदिगोवुच्छाओ उकस्साओ कस्साम । एदाओ वि परमाणुत्तरकमेण ण वति । कुदो ? विदिखंडयचरिमफालीसु णिवदमाणासु सव्वणिसेगेसु अणंताणं परमाणूणमेगवारेण विगिदिगो वुच्छासरूवेण विदुर्लभादो | तेण परमाणुत्तरकमेण पयडिगोबुच्छा चैव वहावेदव्वा जाव पढमडिदिखंडयम स्सिदृण समयूणआवलियमेत्तगोकुच्छासु वडिददव्वं ति । एवं वडिदूण ट्ठिदेण अण्णेगो समयू णावलियमेत्तपगदिगोवच्छाओ जहण्णाओ चैव करिय समयूणावलियमेत्तविगिदिगोवच्छासु पुव्वं वडाविददव्वं धरेण द्विदो सरिसो । पुणो समयूणा १८७ होने तक क्रमसे संचरण कराना चाहिये । फिर पहले और दूसरे समय में अपने अपने उत्कृष्ट परिणामों में हो ठहराकर फिर तीसरे समय को अपने जघन्ये परिणामसे लेकर अपने उत्कृष्ट परिणाम प्राप्त होने तक निरन्तर परिणमाना चाहिये । इस प्रकार सब समयोंका अपने अपने उत्कृष्ट परिणामके प्राप्त होने तक संचार कराना चाहिये । अब उनमेंसे सबसे अन्तिम विकल्पको कहते हैं । वह इस प्रकार है - क्षपितकर्मा शके लक्षणके साथ आकर उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके फिर वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके, वहां अन्तर्मुहूर्त तक ठहरकर दर्शनमोहके क्षपणको आरम्भ करके और अपूर्वकरणसम्बन्धी सबसे उत्कृष्ट परिणामोंके ही द्वारा गुणश्रेणिको करके मिथ्यात्वका क्षपण करे और मिथ्यात्वकी एक आवलिप्रमाण स्थितिवाले एक समय कम आवलिप्रमाण निषेकोंके शेष रहने पर सबसे अन्तिम विकल्प होता है । ९ १७७, अब एक समय कम आवलिप्रमाण विकृतिगोपुच्छाओंको उत्कृष्ट करके बतलाते हैं । ये गोपुच्छाएं भी एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे नहीं बढ़ती हैं, क्योंकि स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालियोंका पतन होने पर सब निषेकोंमें अनन्त परमाणुओं का एक बार में विकृतिगोपुच्छारूपसे पतन पाया जाता है। अतः एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे प्रकृतिगोपुच्छाको ही प्रथम स्थितिकाण्डकका अवलम्बन लेकर एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओं में बढ़े हुए द्रव्यके अन्त तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक समय कम आवलिप्रमाण जघन्य प्रकृतिगोपुच्छाओंको ही करके एक समय कम आवलिप्रमाण विकृतिगोपुच्छाओंमें पहले बढ़ाये हुए द्रव्यको धारण करके स्थित हुआ अन्य एक जीव समान है । फिर एक समय कम आवलिप्रमाण जघन्य १. ता०प्रतौ ' कमेण वहुति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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