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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २२५ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा–खवियकम्मंसियलक्खणेणागंतूण असण्णिपंचिंदिएसुववज्जिय पुणो देवेसुप्पन्जिय उवसमसम्मत्तं घेत्तूण वेदगं पडिवजिय वेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेग दुसमयकालहिदियं घेत्तूण परमाणुत्तरकमेण षड्ढावेदव्वं जाव दुसमयूणावलियमेत्तजहण्णगोवुच्छाओ सविसेसाओ वड्डिदाओ ति । एवं वड्डिदूण हिदेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवन्जिय वेछावहीओ भमिय मिच्छत्तं गतूण दीहुव्बेल्लणकालेणुव्वेलिय सम्मामिच्छत्तचरिमफालिमवणिय समयूणावलियमेसजहण्णगोवुच्छाओ धरिय हिदजीवो सरिसो । तं मोत्तूण समयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ धरिय हिदं घेत्तूण तत्थ परमाणुसरकमेण समयूणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसा विज्झादभागहारेणागददव्वेणूणएगसमयमोकड्डिदूण विणासिददव्वं च वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदेणेदेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण समयूणवेछावडीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुवेल्लिय समयणावलियमेत्तगोवुच्छाओ धरिय हिदो सरिसो। संपहि एदस्सुपरि परमाणुसरकमेण समयूणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसा विज्झादसंकमेणागददव्वणूणएगसमयमोकड्डिय विणासिददब्व च वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदेण अण्णेगो दुसमयूणवेछावट्ठीओ भमिय विकल्पको कहते हैं जो इस प्रकार है-क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर, असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर फिर देवोंमें उत्पन्न होकर फिर उपशम सम्यक्त्वको ग्रहणकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । फिर दो छयासठ सागर कालतक भ्रमणकर मिथ्यात्वमें गया। फिर वहां उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलना करके दो समय स्थितिवाले एक निषेकको प्राप्तकर उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके अधिक क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिये जबतक दो समयकम आवलिप्रमाण कुछ अधिक जघन्य गोपुच्छाएं वृद्धिको प्राप्त हों । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त हो और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमणकर मिथ्यात्वमें गया। फिर उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उदलना करके सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके सिवा एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको धारण कर स्थित है। अब इस जीवको छोड़ दो और एक समयकम आवलिप्रमाण गोपच्छाओंको धारणकर स्थित हुए जीवको लो। फिर उसके एक परमाणु अधिकके क्रमसे एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छविशेषोंको और विध्यात भागहारके द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यसे कम एक समयमें अपकर्षणके द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाओ। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो क्षपितकर्मा शको विधिसे आकर एक समयकम दो छयासठ सागर कालतक भ्रमणकर और उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलनाकर एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुरछाओंको धारण कर स्थित है। अब इस जीवके द्रव्यके ऊपर एक परमाणु अधिकके क्रमसे एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छविशेषोंको और विध्यातसंक्रमण द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यसे न्यून एक समयमें अपकर्षण द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो दो समयकम दो छयासठ सागर काल २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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