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________________ २१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वड्डि-हाणिदंसणादो। अण्णेसिं परिणामाणमत्थितं कत्तो णव्वदे १ खविद-गुणिदकम्मंसिएसु अणंतहाणपरूवणण्णहाणुववत्तीदो। . 8 दुपदेसुत्तरं । $ २१३. जहण्णदव्वस्सुवरि दोकम्मपरमाणुसु ओकडकडणावसेण वड्डिदे तदियं हाणं । एत्थ कजमेदण्णहाणुववत्तीदो कारणभेदोवगंतव्यो। * णिरतराणि हाणाणि उकस्सपदेससंतकम्म ति । २१४. जहण्णहाणप्पहुडि जाव उकस्ससंतकम्मं ति ताव सम्मामिच्छत्तस्स णिरंतराणि ठाणाणि । ण सांतराणि, मिच्छत्तस्सेव एत्थ अपुव्व-अणियद्विगुणसेढिगोवुच्छाणमभावादो। ___६२१५. संपहि वेछावहिसागरोवमसमयाणमुव्वेल्लणकालसमयाणं च एगसेढिआगारे रचणं कादूण कालपरिहाणीए संतकम्मावलंबणेण च चउबिहपुरिसे अस्सिदूण ठाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा–खविदकम्मंसियलक्खणेण सव्वं कम्महिदि परिणामोंसे भी कर्मपरमाणुओंकी वृद्धि और हानि देखी जाती है। शंका-अन्य परिणामोंका सद्भाव किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अन्यथा क्षपितकर्माश और गुणितकर्मा शके अनन्त स्थानोंका कथन बन नहीं सकता, इससे जाना जाता है कि योग और कषायके सिवा अन्य परिणाम भी हैं जिनसे कर्मपरमाणुओंकी हानि और वृद्धि होती है। दो प्रदेश अधिक होते हैं। ६२१३. जघन्य द्रव्यके ऊपर अपकर्षण उत्कर्षणके कारण दो कर्म परमाणुओंकी वृद्धि होने पर तीसरा स्थान होता है। यहाँ कारणमें भेद हुए बिना कार्यमें भेद हो नहीं सकता, इसलिए कारणमें भेद जानना चाहिये। ॐ इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान होते हैं। ६२१४. सत्कर्मके जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके प्राप्त होने तक सम्यग्मिथ्यात्वके निरन्तर स्थान होते हैं, मिथ्यात्वके समान सान्तर स्थान नहीं होते, क्योंकि यहां पर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छाएँ नहीं पाई जाती । विशेषार्थ-मिथ्यात्वके अधिकतर सान्तर सत्कर्मस्थानोंके प्रोप्त होनेका मूल कारण उनका क्षपणाके निमित्तसे प्राप्त होना है। पर सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थान क्षपणाके निमित्तिसेन प्राप्त होकर उद्वेलनाके निमित्तिसे प्राप्त होता है और उसमें उत्तरोत्तर प्रदेशवृद्धि होकर उत्कृष्ट सत्कर्मस्थान प्राप्त होता है, इसलिये यहाँ सान्तरसत्कर्मस्थानोंका प्राप्त होना सम्भव न होनेसे उनका निषेध किया है। ६२१५. अब दो छयासठ सागरके समयोंकी और उद्वलनाकालके समयोंकी एक पंक्ति रूपसे रचना करके कालकी हानि और सत्कर्मके अवलम्बन द्वारा चार पुरुषोंकी अपेक्षा स्थानोंका कथन करते हैं। वे इस प्रकार हैं-क्षपितकर्मा शकी विधिसे सब कर्मस्थितिप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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