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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं उदए पदेसग्गं बहुअं देदि । तदो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणं देदि जावु दयावलियचरिमसमओ त्ति । पुणो सेसअसंखेज्जे भागे उदयावलियबाहिरे णिसिंचमाणो उदयावलियबाहिराणंतरहिदीए पुव्वणिसित्तादो असंखेज्जगुणं देदि । पुणो तदणंतरउरिमद्विदीए असंखे गुणं देदि । एवमुवरिम-उवरिमडिदीसु असंखेजगुणमसंखे गुणं देदि जाव गुणसेढिसीसए त्ति । पुणो गुणसेढिसीसयादो उवरिमाणंतरहिदीए असंखे०गुणहीणं देदि । तत्तो उवरिमसव्वद्विदीसु अइच्छावणावलियवजासु विसेसहीणं देदि । एवं समयं पडि असंखे०गुणं दव्वमोकडिदूण गुणसेटिं करेमाणो अपुव्वकरणद्धं गमेदि । पुणो अणियट्टिकरणं पविट्ठस्स वि एसा चेव विही होदि जाव अणियट्टिकरणद्धाए संखेजा भागा गदा त्ति । पुणो तदद्धाए संखे०भागे सेसे अंतरकरणं काऊण चरिमसमए मिच्छाइट्ठी जादो । तत्थ मिच्छत्तस्स बंधोदयाणं वोच्छेदं कादूण तदणंतरउवरिमसमए अंतरं पविसिय पढमसमयउवसमसम्माइट्ठी जादो। तम्हि चेव समए विदियहिदीए द्विदमिच्छत्तस्स पदेसग्गं मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणमदि। पुणो अंतोमुहुत्तकालं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि गुणसंकमेण पूरेमाणो जहण्णपरिणामेहि चेव पूरेदि । तं जहा-गुणसंकमपढमसमए मिच्छत्तादो जं सम्मत्ते संकमदि पदेसग्गं तं थोवं । तम्मि चेव समए सम्मामिच्छत्ते संकंतपदेसग्गमसंखे०गुणं । पढमसमयम्मि आता है उसका उदयावलिमें निक्षेपण करता हुआ उदयमें बहुत प्रदेशोंका निक्षेपण करता है और उससे ऊपरके निषेकोंमें एक एक चयहीन प्रदेशोंका निक्षेपण करता है। यह निक्षेपण उदयावलिके अन्तिम समय पर्यन्त करता है। फिर शेष बचे असंख्यात बहुभाग द्रव्य का उदयावलिसे बाहरके निषेकोंमें निक्षेपण करता है। ऐसा करते हुए उदयावलिसे बाहरके अनन्तरवर्ती निषेकमें ( उस निषेकमें जो उदयावलीके अन्तिम समयवर्ती निषेकसे ऊपरका निषेक है) पहले निक्षिप्त द्रव्यसे असंख्यातगुणा द्रव्य देता है। फिर उससे अनन्तरवर्ती ऊपर के निषेकमें उससे असंख्यातगुणा द्रव्य देता है। इस प्रकार ऊपर ऊपरकी स्थितियोंमें असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यको देता है। इस प्रकार गुणश्रेणिके शीर्ष पर्यन्त देता है। फिर गुणश्रेणिके शीर्षसे ऊपरके अनन्तरवर्ती निषेकमें असंख्यात गुणहीन द्रव्य देता है। आगे उससे ऊपरकी सब स्थितियांमें अतिस्थापनावलीसम्बन्धी निषेकोंको छोड़कर चयहीन चयहीन द्रव्यको देता है। इस प्रकार प्रति समय असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके, गणिको करता हुआ अपूर्वकरणके कालको बिता देता है। फिर अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करता है। वहाँ भी अनिवृत्तिकरण कालके संख्यात बहुभाग बीतने तक यही विधि होती है। जब संख्यातवें भाग प्रमाण काल शेष रहता है तो अन्तरकरण करके अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि हो जाता है और वहाँ मिथ्यात्वके बन्ध और उदयकी व्युच्छित्ति करके उसके अनन्तरवर्ती ऊपरके समयमें अन्तरमें प्रवेश करके प्रथम समयवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टी हो जाता है। उसी समयमें जिस समय कि वह उपशमसम्यग्दृष्टी हुआ दूसरी स्थितिमें स्थित मिथ्यात्वके प्रदेश समूहको मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूपसे परिणमाता है। पुनः अन्तमुहूर्त कालतक गुणसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको पूरता हुआ जघन्य परिणामोंके द्वारा परता है। यथा-गुणसंक्रमके प्रथम समयमें मिथ्यात्वका जो प्रदेशसमूह सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रमण करता है वह थोड़ा है। उसी समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त होनेवाला मिथ्यात्वका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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