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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २२९ कंडयाणि पुन्वविहाणेण पत्तजहण्णभावाणि जहण्णुव्वेल्लणकालेण पादिय समयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ धरिय हिदो सरिसो। सव्वेसु कंडएसु जहण्णेसु संतेसु कथमेगं चेव कंडयमहियत्तमल्लियइ' ? ण, ओकड्डक्कड्डणवसेण णाणाकालपडिबद्धणाणाजीवेसु एवं विहवष्टुिं पडि विरोहाभावादो। अधवा पयडिगोवुच्छाए बड्डाविददव्वमेत्तं सव्व सुव्वल्लणहिदिखंडएसु वड्डाविय विगिदिगोवुच्छसरूवण करिय णिरंतरहाणपरूवणा कायव्वा । $ २२६. संपहि इमं घेत्तण परमाणुत्तरकमण' पगदिगोवच्छा वड्ढावेदव्वा जाव विदियकंडएण संछुहमाणदव्व वहिदं ति । एवं वड्डिदूण हिदेण अण्णेगो पुव्वविहाणेणागंतूण पढमविदियकंडयाणि उक्कहाणि करिय घादिय अवसेसकंडयाणि जहण्णाणि चेव घादिय हिदो सरिसो। एवमेदेण बीजपदेण तदियादिकंडयाणि चड्ढाव दव्याणि जाव दुचरिमकंडयं ति । चरिमकंडयदव्व किण्ण वड्डाविदं ? ण, तस्स मिच्छत्तसरूवण गच्छंतस्स समयूणउदयावलियाए पदणाभावादो। एवं विगिदिगोवुच्छाओ उक्कस्साओ कादूण पुणो समऊणावलियमेत्तपगदिगोवुच्छाओ परमाणुत्तरकमेण पंचवड्डीहि घातकर फिर प्रथमकाण्डकको छोड़कर द्वितीयादि उद्वेलना काण्डकको जघन्यपनेको प्राप्तकर जघन्य उद्वेलना कालके द्वारा पतन कर एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको धारण कर स्थित है। शंका-सब काण्डकोंके जघन्य रहते हुए एक ही काण्डक अधिकपनेको क्यों प्राप्त होता है। समाधान नहीं, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणके वझसे नाना कालसम्बन्धी नाना जीवोंमें इस प्रकार वृद्धि माननेमें कोई विरोध नहीं आता। अथवा प्रकृतिगोपुच्छामें बढ़ाये गये द्रव्यप्रमाण द्रव्यको सब उद्वेलना स्थितिकाण्डकोंमें बढ़ाकर और फिर उसे विकृतिगोपुच्छारूपसे करके निरन्तर स्थानोंका कथन करना चाहिये। ६२२६. अब इस द्रव्यको लेकर एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे दूसरे स्थितिकाण्डकके द्वारा पतनको प्राप्त हुए द्रव्यके बढ़ने तक प्रकृतिगोपुच्छाको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ अन्य एक जीव समान है जो पूर्व विधिसे आकर प्रथम व दूसरे काण्डकको उत्कृष्ट कर व उनका घात कर अनन्तर शेष काण्डकोंको जघन्यरूपसे ही घात कर स्थित है। इस प्रकार इस बीज पदका अवलम्बन लेकर द्वि चरिम काण्डक तक तीसरे आदि काण्डकको बढ़ाना चाहिये। शंका-अन्तिम काण्डकके द्रव्यको क्यों नहीं बढ़ाया ? समाधान नहीं क्योंकि मिथ्यात्वरूपसे जानेवाले अन्तिमकाण्डकके द्रव्यका एक समय कम उदयावलिमें पतन नहीं होता । इस प्रकार विकृतिगोपुच्छाओंको उत्कृष्ट करके फिर एक समय कम आवलिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाओंको एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पांच वृद्धिोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके १.पा प्रतौ 'चेव फहयमहियत्तमल्लियई' इंति पाठः । २. ता. प्रतौ 'परमाणुत्तरादिकमेण' इति पाठः । ३. प्रा०प्रती 'गोपुच्छाओ कादूण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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