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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १४७ ण च गुणसंकम भागहारादो अधापवत्तभागहारस्स असंखे अगुण तमसिद्ध, सव्वत्थोवो सव्वसंकमभागहारो । गुणसंकमभागहारो असंखे० गुणो । ओकडकड्डणभागहारो असंखेजगुणो । अधापवत्तभागहारो असंखे० गुणो । उव्वेल्लण कालभंतरे णाणागुणहाणिस लागाण मण्णोणन्भत्थरासी असंखेअगुणा । दूरावकि विद्धि दिअन्यंतरणाणागुणहाणि सलागाण मण्णोष्णन्भत्थरासी असंखे० गुणा त्ति सुत्ताविरुद्धवक्खाणप्पाब हुएण तस्स सिद्धीदो । संपहि दूराव किट्टिडिदिसंतकम्मे अच्छिदे द्विदीए असंखेज्जभागे आगाएदि । अवसेस हिदी पलिदोवमस्स असंखे ० भागमेत्ता । तत्थ जदि जहण्णपरित्तासंखेजअद्धच्छेदणय सलागाहि अब्भहियगुणसंकमभागहारद्धच्छेदणय सलागमेत्ताओ णाणागुणहाणि सलागाओ होंति तो वि आयादो वओ असंखेज्जगुणो, जहण्णपरित्तासंखेजमत्तगुणगारुवलं भादो । अह जह तत्थ संपहि उत्तणाणागुणहाणिसलागाओ रूवूणाओ हों तो वि विगिदिगो वुच्छादो वओ संखेञ्जगुणो होदि, जहण्णपरित्तासंखे जस्स अद्धमेत्तगुणगारुवलंभादो । एवं संखेञ्जगुणवड्डी उवरि वि जाणिदूण वत्तव्वा । जदि सहिदी गुणसंकमभागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ताओ णाणागुणहाणिसलागाओ होंति तो वएण विगिदिगोवुच्छा सरिसी होदि, उभयत्थ भज-भागहाराणं सरिसत्तुवलंभादो । सोथो । हुमहिदीए पुण णिहालिअमाणे एत्थ वि आयादो वओ विसेसाहिओ, गुणाना सिद्ध है । शायद कहा जाय कि गुणसंक्रमभागहारसे अधःप्रवृत्तभागहारका असंख्यातगुणा होना असिद्ध है । सो भी बात नहीं है, क्योंकि सर्वसंक्रमभागहार सबसे थोड़ा है । गुणसंक्रमभागहार उससे असंख्यातगुणा है । अपकर्षण - उत्कर्षणभागहार उससे असंख्यातगुणा है । अधःप्रवृत्त भगिहार उससे असंख्यातगुणा है । उद्वेलनकालके अन्दरकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि उससे असंख्यातगुणी है । दूरापकृष्टिस्थितिके अन्दरकी नानागुणहानिशलाकाओं की अन्योन्याभ्यस्तराशि उससे असंख्यातगुणी है इस सूत्राविरुद्ध व्याख्यानमें कहे गये अल्पबहुत्वके आधारसे गुणसंक्रमभागहार से अधःप्रवृत्तभागहारका असंख्यातगुणापना सिद्ध है । दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्मके रहते हुए स्थितिकाण्डकके लिए स्थितिके असंख्यात बहुभागको ग्रहण करता है और बाकी स्थिति पल्यके असंख्यातवें भाग रहती है । उसमें यदि जघन्य परीतासंख्यातकी अद्धच्छेदशलाका ओंसे अधिक गुणसंक्रमभागहारके अर्द्धच्छेदों की शलाका प्रमाण नाना गुणहानिशलाकाएँ होती हैं, तो भी आयसे अर्थात् विकृतिगोपुच्छाके द्रव्यसे व्यय अर्थात् गुणसंक्रमके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा हुआ, क्योंकि व्ययका गुणकार जघन्यपरीतासंख्यात प्रमाण पाया जाता है। और यदि उसमें उक्त नाना गुणMaraम होती हैं तो भी विकृतिगोपुच्छासे व्यय संख्यातगुणा प्राप्त होता है, क्योंकि तब व्ययका गुणकार जघन्य परीतासंख्यातसे आधा पाया जाता है । इसी प्रकार आगे भी संख्यातगुणवृद्धिको जानकर कहना चाहिए । यदि शेष स्थिति में गुणसंक्रमभागहारके अर्द्धच्छेदप्रमाण नानागुणहानि शलाकाएँ होती हैं तो विकृतिगोपुच्छा व्ययके समान होती है; क्योंकि दोनों जगह भाज्य और भागहार समान पाये जाते हैं । यह तो हुआ स्थूल अर्थ । किन्तु सूक्ष्म स्थितिको देखने पर यहाँ भी आयसे व्यय विशेष अधिक है; क्योंकि अतिक्रान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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