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________________ ६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ६ ७९. आदेसेण णेरइ० उक्कस्ससंतकम्माणि घेत्तूणेवं चेव भागाभागो कायव्यो । णवरि मिच्छत्तभागमसंखे०खंडाणि कादण तत्थेयखंडमेत्तो सम्मामि भागो होइ । कारणं सुगमं । अण्णं च णोकसायुक्कस्ससंतकम्ममस्सियूण भागाभागे कोरमाणे णोकसायमिथ्यात्व प्रकृतिको मिल जाता है। जब अनादि मिथ्यादृष्टि या सादि मिथ्यादृष्टि जीवको सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है तो सम्यक्त्व प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूप कर्माशोंकी उत्पत्ति हो जाती है। जैसे चाकीमें दले जानेसे धान्य तीन रूप हो जाता है-चावलरूप, छिलके रूप और चावलके कण तथा छिलके मिले हुए रूप उसी तरह अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके द्वारा दला जाकर दर्शनमोहनीयकर्म भी मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूप हो जाता है। उपशमसम्यक्त्व प्राप्त होनेके प्रथम समयसे ही मिथ्यात्वके प्रदेश गुणसंक्रमभागहारके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वरूपमें परिणमित होने प्रारम्भ हो जाते हैं। यहाँ गुणसंक्रम भागहारका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रदेशोंको लानेके लिए जो गुणसंक्रमभागहार है उससे सम्यक्त्व प्रकृतिमें प्रदेशोंको लानेमें निमित्त गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा है। इस भागहारके द्वारा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव पहले समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें बहुत प्रदेश देता है, सम्यक्त्वमें उससे असंख्यातगुणे होन प्रदेश देता है। किन्तु प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें जितना द्रव्य देता है उससे असंख्यातगुणा द्रव्य दूसरे समयमें सम्यक्त्वमें देता है और उससे असंख्यातगुणा द्रव्य उसी दूसरे समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें देता है। तीसरे समयमें सम्यग्मिथ्यात्वसे असंख्यातगुणा द्रव्य सम्यक्त्वमें और उससे असंख्यातगुणा द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वमें देता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त गुणसंक्रम भागहार होता है। उपशमसम्यक्त्वके द्वितीय समयसे लेकर जब तक मिथ्यात्वका गुणसंक्रम होता है तब तक सम्यग्मिथ्यात्वका भी गुणसंक्रम होता है। अङ्गुलके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागसे भाजित होकर सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य प्रति समय सम्यक्त्र प्रकृतिमें संक्रमित होता है। अतः इन तीनों प्रकृतियोंके प्रदेशसत्कर्मका भागाभाग जाननेके लिये मिथ्यात्वके भागके तीन भाग करो। पहला भाग मिथ्यात्वका द्रव्य है । दूसरे भागमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देकर जो लब्ध आवे उसे उसी भागमेंसे घटा देने पर जो द्रव्य शेष रहे वह सम्यक्त्वका द्रव्य है। तीसरे भागमें कुछ कम पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देकर जो लब्ध आवे उसे उसी भागमेंसे घटानेसे जो शेष बचता है वह सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य होता है। ऐसे ही दूसरा प्रकार भी समझना चाहिये। ऐसा करनेसे सबसे कम द्रव्य सम्यग्भिथ्यात्वका होता है । उससे अधिक द्रव्य सम्यक्त्वका होता है और उससे भी अधिक मिथ्यात्वका द्रव्य होता है। आलापोंके संक्षेप अर्थात् अल्पबहुत्वमें अनन्तानुबन्धी लोभसे सम्यमिथ्यात्व का द्रव्य जो विशेष अधिक कहा है उसका कारण यह है कि यहाँ पर सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य ग्रहण किया है और उसका स्वामी दर्शनामोहकी क्षपणा करनेवाला जीव जब मिथ्यात्वका सब द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वमें क्षेपण कर देता है तब होता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिके विषयमें भी जानना चाहिये । शेष कथन स्पष्ट ही है। ६७९. आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको लेकर इसी प्रकार भागाभाग करना चाहिए। इतना विशेष है कि मिथ्यात्वके भागके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे ऐक खण्डप्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वका भाग होता है। इसका कारण सुगम है। तथा नोकषायके उत्कृष्ट सत्कर्मको लेकर भागाभाग करने पर नोकषायके सब द्रव्यका एक पुञ्ज करो। फिर उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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