SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहन्ती ५ वुम्बदे । तं जहा — खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण देवसुववजिय सम्मतं घेत्तूण अणंताणुबंधिचउकं विसंजोएदूण संजुत्तो होदून सम्मत्तं पडिवजिय वेछावडीओ भमिय अनंताणु० चउकं विसंजोइय चरिमफालिं धरेण द्विदम्मि अनंतभागवड्डि-असंखेजभागवड्डीहि एगगोवुच्छा एगसमयं विज्झादेण गददव्वं च वढावेदव्वं । एवं वड्ढिदेण अण्गो पुव्वविहाणेण' आगंतूण समयूणवेछावडीओ भमिय चरिमफालिं धरेदूण हिदो सरिसो । एवमेगगोवुच्छं वड्डाविय समयूणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव पढमछावही तोमुहुत्तणाति । पुणो तत्थ दृविय पुव्वविहाणेण वड्डाविय सत्तमपुढविणेरइएण सह संधाणं करिय दिव्वं । $ २६३. संपहि गुणिदकम्मं सियमस्सिदूण कालपरिहाणीए द्वाणपरूवणं कस्साम । तं जहा - खविदकम्मंसियल क्खणेणागतूण सयलवेच्छावडीओ भमिय अनंताणुबंधिचक विसंजोएदूण एगणिसेग दुसमयकालं धरेदूण द्विदम्मि जहण्णदव्वं होदि । एत्थ परमाणुत्तरकमेण चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण वड्ढावेदव्वं पयडि - विगि दिगो वुच्छाओ अपुव्वगुणसेढिगोवुच्छा च उकस्सा जादा ति । णवरि अणियट्टिगुणसेढिगोबुच्छा वड्ढिविवज्जिदा, खविद-गुणिदकम्मंसिएस अणियट्टिपरिणामाणं जाव अब अन्तिम फालिके कथन करनेका क्रम कहते हैं जो इस प्रकार है - क्षपितकर्मा शकी विधि से आकर देवों में उत्पन्न हुआ। फिर सम्यक्त्वको ग्रहणकर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की । फिर उससे संयुक्त हो सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । फिर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर अन्तिम फालिको धारण कर स्थित होने पर अनन्तभागवृद्धि और असंख्यात भागवृद्धिके द्वारा एक गोपुच्छाको और एक समय में विध्यावभागहारके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो पूर्व विधिसे आकर और एक समयकम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमणकर अन्तिम फालिको धारणकर स्थित है । इस प्रकार एक-एक गोपुच्छाको बढ़ाकर एक समयकम आदिके क्रमसे अन्तर्मुहुर्त कम प्रथम छयासठ सागर काल तक उतारना चाहिये । फिर वहां ठहरा कर और पूर्वविधिसे बढ़ा कर सातवीं पृथिवीके नारकीके साथ मिलान करके ग्रहण करना चाहिए । ९ २६३. अब गुणितकर्मा शकी अपेक्षा कालकी हानि द्वारा स्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार है - क्षपितकर्माशकी विधिसे आकर पूरे दो छ्यासठ सागर काल तक भ्रमण कर फिर अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवके जघन्य द्रव्य होता है। यहां चार पुरुषोंकी अपेक्षा एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा और अपूर्वकरणकी गुणश्र ेणि गोपुच्छा इनके उत्कृष्ट होने तक बढ़ाते जाना चाहिये | किन्तु इतनी विशेषता है कि अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा वृद्धि से रहित है क्योंकि क्षपितकर्माश और गुणितकर्माशके अनिवृत्तिकरणके परिणाम तीनों कालोंमें वृद्धि और १. प्रा० प्रती 'अण्णेगो अपुब्वविहाणेण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy