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________________ २८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ओकडणमस्सिदण असंखेजगुणहीणत्तं पडि विरोहाभावादो। एवं बड्डिदूण हिदेण अण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ ईसाणदेव सु णवंसयव ददव्वमुक्कस्सं करियागतूण पुणो तिपलिदोवमिएसुववजिय सम्मत्तं घेत्तूण वेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं गतूण पुवकोडीए उववजिय पुणो उक्कस्सअपुव्व परिणामेहि गुणसेढिं करिय खवण एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदण द्विदो सरिसो । एवं वड्डाविदे पयडि-विगिदिगोवुच्छाओ अपव्वगुणसेढिगोवुच्छा च उकस्साओ जादाओ । पणो एदेण अण्णगो ईसाणदेवसु णवंसयव दमुकस्सं करमाणो तत्थ विज्झाददव्वसहिदएगगोवुच्छविसेसेणूणमुक्कस्सदव्वं करियाग तूण पुणो समऊणव छावडीओ भमिय णसयषदें खव दूण एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदूण हिदो सरिसो । एवं संघीओ जाणिय खविदकम्मंसियम्मि भणिदविहाणेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तब्भहियअट्ठवस्साणि त्ति । एवं खविद-गुणिदकम्मसिए अस्सिदूण णसयव दस्स एगफद्दयपरूवणा कदा । २९३. संपहि एत्थ गवंसयव दम्मि समयूणावलियम तफद्दयाणि णत्थि, दुचरिमसमयसव दम्मि चरिमफालीए उवलंभादो। तिण्हं व दाणं दुचरिमसमयसव दे चरिमफालीओ अत्थि त्ति कुदो णव्वदे ? उवरि भण्णमाणखवणचुण्णिसुत्तादो । 8 एद मगं फदय। गोपुच्छा अपकर्षणकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हीन होती है इसमें कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए एक जीवके समान अन्य एक जीव है गुणितकर्मा शवाला जो जीव ईशानस्वर्गके देवोमें नपुंसक वेदको उत्कृष्ट करके आया फिर तीन पल्यकी आयुवालों में उत्पन्न होकर अन्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ फिर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर मिथ्यात्वमें गया और एक पूर्वकोटिकी आयुके साथ उत्पन्न हुआ। फिर अपूर्वकरणके उत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा गुणश्रोणिको करके क्षय करता हुआ एक समयकी स्थितिषाले एक निषकको धारण कर स्थित है। इस प्रकार बढ़ाने पर प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा और अपूर्वकरणकी गुणश्रणिगोपुच्छा उत्कृष्टपनेको प्राप्त होती हैं। फिर इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो ईशान स्वर्गके देवोमें नपुंसकवेदको उत्कृष्ट करता हुआ वहाँ विध्यातके द्रव्यके साथ एक गोपुच्छा विशेषसे कम उत्कृष्ट द्रव्यको प्राप्त हो आया और एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर नपुंसकवेदका क्षय करता हुआ एक समयकी स्थितिवाले एक निषकको धारण कर स्थित है। इस प्रकार सन्धियोंको जानकर क्षपितकर्मा शिकको अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष तक उतारते जाना चाहिये । इस प्रकार क्षपितकर्माश और गुणितकर्मा शकी अपेक्षा नपुंसक वेदके एक स्पर्धकका कथन किया। ६२९३. अब यहां नपुंसकवेदमें एक समयकम आवलिप्रमाण स्पर्धक नहीं हैं, क्योंकि सवेद भागके द्विचरम समयमें अन्तिम फालि पाई जाती है। शका-तीनों वेदोंके सवेद भागके द्विचरम समयमें चरम फालियां रहती हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आगे कहे जानेवाले क्षपणाविषयक चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है। * यह सब मिलकर एक स्पर्धक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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